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________________ भगवती सू ५५० उदीरकप्रकरणे - 'छं कम्माणं उदीरमा नो अणुदीरगा' षण्णां वेदनीयायुष्कवर्णानां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां नियमादुद्दीरका एव भवन्ति न तु अनुदीरका भवन्तीति । किन्तु 'वेदणिज्जाउयाणं उदीरणा वा अणुदीरगा वा' वेदनीयकर्मणाम् आयुष्कर्मणां चोदीका वा भवन्ति अनुदीरका वा भवन्तीति तत्र भजने भावः । ' ते णं भंते ! जीवा किं कण्ह० पुच्छा' ते खल भदन्त ! जीवाः कि कृष्णश्यावन्तो भवन्ति अथवा - नीलकापोता दिलेश्यावन्तो भवन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कण्डलेस्सा वा' कृष्णलेश्या वा ते जीवाः कृष्णलेश्यानन्तोऽपि भवन्ति 'नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा' नीललेश्या वा भवन्ति कापोतिकलेश्या वा, भवन्ति तेजोलेश्या वा भवन्ति पृथिव्यप्रबनस्पतीनामपर्याप्तावस्थापेक्षया प्रकरण में ये-'छण्ह' कम्माण उदीरगा तो अणुदीरगा' वेदनीय और आयुष्क को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि छह कर्मों के ये नियम से उदीरक होते हैं अनुदीरक नहीं होते हैं । किन्तु 'वेदनीय और आयुष्क कर्मों की उदीरणा इन में भजनीय होनी है इसलिये ये इनके उदीर भी होते हैं और उदीरक नहीं भी होते हैं । यही बात - 'वेदणिज्जाउयाणं उदीरगावा अणुदीरगा वा' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है । 'तेणं ते! जीवा किं कण्ह० पुच्छा' हे भदन्त ! वे जीव क्या कृष्णदेवाले होते हैं ? अथवा नीलकापोत आदि daयावाले होते हैं ? इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! कण्हलेला वा, नीललेस्सा वा, काउलेस्सो वा, तेउलेस्सा वा' हे गौतम ! ये कृष्णलेश्यावाले भी होते हैं, नीललेावा भी होते हैं, कापोतावाले भी होते हैं और तेजोलेश्पावाले भी होते हैं। 'नो अनुदई' मा अनुध्यवाजा होता नथी. डीरथाना प्रम्रणुभां भी 'छन्हे कम्माणं उदीरगा तो अनुदीरगा' वेहनीय भने आयुष्य उर्भने छोडीने खाडीना જ્ઞાનાવરણીય આદિ છ કર્મોના નિયમથી ઉદીરક હૈાય છે. અનુઢીરક હેાતા નથી પરંતુ વેદનીય અને અ યુષ્ય કર્મોની ઉીરણુ આમાં ભજનાથી હાય છે. मेवात 'वेदणिज्जा उशणं उदीरगावा अणुदीरगावा' या सूत्रपाठ द्वारा अगर 'रेस छे. 'वेणं' भ ंते ! जीवा किं कण्ह० पुच्छा' हे भगवन् ते को शु दृष्यसेश्याવાળા હોય છે? અથવા નીલેશ્યાવાળા અથવા કાપેત વિગેરે લૈશ્યા वाजा होय हे ? या प्रश्न उत्तरमां अनुश्री हे छे - 'गोयमा ! कहलेस्सा वा, नीललेस्स वा, काउलेस्खा वा, तेउलेस्सा वा' हे गौतम! તે કૃષ્ણુલેશ્યાવાળા પશુ હોય છે, નીલલેશ્યાવાળા પણ હાય છે, કાર્પાતિક લેશ્યાવાળા પહેાય છે, અને તેોલેશ્યાવાળા પણ હોય છે. કેમ કે પૃથ્વી,
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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