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________________ प्रमैयचन्द्रिका तीक्षा २०३५ उ. १०२ कृ कृतयुग्मकेन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१७ सर्पिणीभिरपहियन्ते 'णो चेव णं अबहरिया सिया' नैव खलु ते अनन्ता अपहताः स्युः। 'उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए' उच्चत्वं यथोतालोद्देशके तेषां कृतयुग्मकृत्युग्मैकेन्द्रियजीवानां शरीरोच्चत्वे यथोत्पलोद्देशके उत्पलविपये कथित तथैव ज्ञातकम्, जघन्येनांगुलोसंख्येयभागम् उत्कर्पण सातिरेकं योजनसहस्रं रनस्पत्यपेक्षया इति । 'तेणं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा अबंधगा' ते खलु भदन्त ! कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियजीवाः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वन्धका भवन्ति अथवा अवन्धका भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, यदि एक एक लमय में एक एक निकाले जावें तो इन के खाली करने में अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल समाप्त हो सकते हैं । परन्तु 'जो चेन णं अवहरिया सिया' वे खाली नहीं किये जा सकते हैं । अर्थात् इतने काल में भी नहीं गिने जा सकते हैं 'उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए' इन के शरीर की ऊचाई के विषय में जैसा कथन उत्पल उद्देशक में किया गया है-वैसा जानना चाहिये। अर्थात् जघन्य से इन के शरीर की ऊंचाई अंगुरू के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक १ हजार योजन प्रमाण होती है यह ऊचाई का उत्कृष्ट रूप से कथन कमल की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये। ___ 'तेज भंते ! जीवा नाणावरणि जस्ल कम्मरस किंबंधगा अपंधमा' हे भदन्त ! वे जीव क्या ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक होले हैं अथवा अपन्धक होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! बंधगा, नो સમયમાં અન ત અન તની સંખ્યામાં કહાડવામાં આવે તે પણ તેઓને ખાલી કરવામાં અનંત ઉત્સર્પિણી અને અન ત અવસર્પિણી કાળ સમાપ્ત થઈ જાય छ. ५२ णो चेव ण अवहरिया सिया' ते जाली ४शता नथी अर्थात् त स्थान परथी मिस ममेडी शता नथी. 'उच्चत्तं जहा उपप्लुसए' तयाना શરીરની ઉચાઈ ના સબંધમાં ઉત્પલ ઉદેશમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન સમજવું અર્થાત્ જઘન્યથી તેઓના શરીરની ઉંચાઈ આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુની હોય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી કઈક વધારે ૧ એક હજાર જન પ્રમાણુની હોય છે. આ ઉચાઈનું પ્રમાણું ઉત્કૃષ્ટ પણથી કથન કમળની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે તેમ સમજવું જોઈએ. वेण भवे ! जीवा नाणावरणीजस्स कम्मस्स कि पंधगा अववधगा' है ભગવન તે છ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કરવાવાળા હોય છે, અથવા બંધ ४२नार लाता नयी १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! यधगा
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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