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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३४ भ. श०१ उ०२ अन० कैकेन्द्रियाणां भेदादिनि० ४५६ विमात्रविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति, इति पृच्छया संगृह्यते, भगवानाइ-'गोपमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइया तुल्लहिइया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति' अस्त्येकके तुल्पस्थितिकाः तुल्यविशेषाधिक फर्म ज्ञानावरणीया दिक प्रकुर्वन्ति 'अत्थेगइया तुल्लद्विइया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति' अस्स्येकके तुल्यस्थितिका विमात्र विशेषाधिक कम प्रकुर्वन्तीत्युत्तरम् । पुन: शङ्कते 'से केणढेग' इत्यादि, 'से काढणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति' तत्केनार्थेन भदन्त ! यावद् विमात्रविशेषाधिक कर्म प्रकुर्वन्ति इति, अन यात्प. विशेषाधिक फर्मका बन्ध करते हैं ? अथवा जो अनन्तरोपपन्नक जीव भिन्न भिन्न स्थितिवाले होते हैं वे तुल्य षिशेपाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? अथवा जो भिन्न भिन स्थितियाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव हैं वे विषम विशेषाधिक कर्मका पन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! अत्थेमाइया तुल्लहिया तुल्लविलेलाहिय कम्मं पकाति' है गौतम! कितनेक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो समान स्थितिवाले होते हैं ऐसे वे जीव तुल्यविशेषाधिक ज्ञानावरणीय आदि कर्मका पन्ध करते हैं। 'अस्थेगड्या तुरलहिया वेमा. यविले साहियं कम्मं पकरेंति' तथा कितनेक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो समान स्थितिवाले तो होते हैं पर वे भिन्न भिन्न रूप में विशेषाधिक कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । 'ले केणटेणौंजाब वेमाविलेलाहियं करमं पकरेंति' हे भदन्त ! ऐसा કર્મનો બંધ કરે છે અથવા જે અનંતરોપનક જીવ જુદી જુદી રિથતિવાળા હોય છે, તેઓ શું તુલ્ય અથવા વિશેષાધિક કર્મને બંધ કરે છે? અથવા જે જુદી જુદી સ્થિતિવાળા અનંતર૫૫નક એકેન્દ્રિય જીવે છે. તેઓ વિષમ પણથી વિશેષાધિક કમને બધ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छे है-'गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लढ़िइया तुल्लविसेसाहिय कम्म' पकरें ति' ગૌતમ! કેટલાક અનંતરે પપનક એકઈન્દ્રિયવાળા જી એવા હોય છે, કે જેઓ સમાન સ્થિતિવાળા હોય છે, એવા તે જ તુલ્ય વિશેષાધિક જ્ઞાનાવરણીય विगेरे मना १५ ४२ छ. 'अत्थेगइया तुल्लद्विइया वेमायविसेसाहिय' कम्म पकरें'ति' तथा 281 रन तरी५५-न मेन्द्रियाणा छ। मेवा खाय छ કે જેઓ સમાન સ્થિતિવાળા હોય છે, પરંતુ તેઓ જુદા જુદા પ્રકારે વિશેષાધિક કર્મપ્રકૃતિને બંધ કરે છે. 'से फेण ट्रेण जाव वेमायविसेनाहिय' कम्म' पकरें ति' है मापन
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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