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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०३४. श. १०८ धा०श्चिकायानां स्थानादिनि० ४५ विषमोपपन्नका स्त इमे चत्वारो भैदा भवन्ति एकेन्द्रियाणाम् । 'तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं तुल्लट्ठिझ्या तुल्ल विसेसाहियं कम्मं पकरेंति तत्र चतुषु मध्ये ये ते एकेन्द्रियाः समायुष्का समोषपनका स्ते खलु तुल्यस्थितिका समकमेवोत्पन्ना स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुर्वन्ति तत्रैते तुल्यस्थितिकाः समो. स्पन्नत्वेन परस्परेण समानयोगत्वात् तुल्य मिति समानमेव कर्म कुर्वन्ति, तथा ते च पूर्वकर्मापेक्षया हीनं वा अधिकं वा कर्म कुर्वन्ति यद्यधिक तथा विशेषाधिक मपि, तच परस्परतः तुल्य विशेषाधिकं न तु विशेषाधिकमेव इत्यत उक्तं तुल्य. विशेषाधिकर्मिति १ । 'तत्थं णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं तुल्लट्ठिइया भिन्न भिन्न आयुवाले भी होते हैं और भिन्न भिन्न समयमें भी उत्पन्न होते हैं।' इस प्रकार से एकेन्द्रियों के ये चार प्रकार होते हैं 'तस्थ णं जे ते समाउया समोचवन्नगा तेणं तुल्लट्ठिया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकाति' इनमें जो एकेन्द्रिय जीव समान आयुवाले और एक ही साथ में उत्पन्न हुए होते हैं-वे एकसी स्थितिवाले होते हैं। और तुल्यविशेषाधिक कर्मके बन्धक होते हैं। क्योंकि तुल्य. स्थितिवाले जीव समकालमें उत्पन्न होने के कारण आपस में समान योगवाले होते हैं-इसलिये वे समान ही कमेंका बन्ध करते हैं । अथवा तो वे पूर्व कर्मको हीन कर्म करते हैं अथवा अधिक कर्म करते हैं। यदि अधिक कर्म करते हैं तो वह परस्पर में तुल्य होता हुआ भी पूर्व कर्म की अपेक्षा विशेषाधिक होता है केवल विशेषाधिक ही नहीं होता है। इसीलिये उसे तुल्य और विशेषाधिक इन दो विशेषणों से विशिष्ट वतलाया गया है। वानयार लेहो य छे. 'तत्थ ण जे ते समाउया समोववन्नगा ते ण तुल्लद्विइया तुल्ल विसे साहिय कम्म' पकरेंति' मामले मेछन्द्रयवाणा જી સમાન આયુષ્યવાળા અને એક સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ સરખી સ્થિતિવાળા હોય છે. અને તુલ્ય વિશેષાધિક કર્મને બંધ કરવાવાળા હોય છે. કેમ કે-તુલ્ય સ્થિતિવાળા જ સરખા કાળમાં ઉત્પન્ન થવાને કારણે પરસ્પરમાં સરખા ગવાળા હોય છે. તેથી તેઓ સરખા કર્મને જ બંધ કરે છે. અથવા તો તે પૂર્વ કર્મને એટલે કે પહેલા કરેલા કર્મોને હીન ઓછા કરે છે અથવા અધિક કર્મ કરે છે. જે અધિક કર્મ કરે તે તેઓ પરસ્પરમાં તુલ્ય થઈને પણ પૂર્વકર્મની અપેક્ષાથી વિશેષાધિક હોય છે. કેવળ વિશેષાધિક જ હતા તેથી તેઓને તુલ્ય અને विशेषाधि: या विशेष।था युटत ४९ छे. 'तस्थ ण जे ते समाउया
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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