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________________ भगवतीस्त्रे विशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति । अरत्येकके तुल्यस्थितिका विमानविशेषाधिकं कर्म फुर्वन्ति, असत्येक विमात्रस्थितिका स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म कुर्वन्ति, इत्येषां संग्रडो भवतीत्यवान्तरमश्नः । भगवानाद-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगिदिया चउनिहा पन्नत्ता' एकेन्द्रिया चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' यथा-'अत्थेगइया समाउया समोरचन्नमा' अरत्येकके समायुष्काः समोपप न्नका, समम्-तुल्यम् भायुर्यपों से समायुकाः समानस्थितिका इत्यर्थः । 'अस्थे गइया समाउया विसमोघवन्नगा' अस्त्येक के समायुप्का:-तुल्यायुप्काः समोपपन्नकाः, 'अथेगइया विसमाउया समोववन्नगा अत्थेगइया विसमाउया विसमो. ववन्नगा' अत्येकके विपमायुष्का समोपपन्नकाः अस्त्येकके विषमायुष्काः एकेन्द्रिय जीप भिन्न भिज विशेषाधिक कर्मका बन्ध करते हैं ? यहां यावत् पद से बीच के दो विकल्प गृहीत हुए हैं। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! एनिदिया चउचिहा पण्णत्ता' हे गौतम! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे गये हैं।' 'तं जहा' 'जो इस प्रकार से हैं'भत्थेगइया समाउया समोवचन्नगा' एक वे एकेन्द्रिय जीव जो समान आयुवाले होते हैं और एक ही साथ उत्पन्न होते हैं। 'अत्थेगया समाउया चिलमोववन्नगो' 'दूसरे चे एकेन्द्रिय जीव जो समान आयुवाले तो होते हैं पर एक ही साथ उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु भिन्न भिन्न समय में उत्पन्न होते हैं। तीसरे 'अत्थे गया जिसमाउया समोवनमा प्रथेगया विलमा उचा विसमो. ववनगा' 'दो एकेन्द्रिय जीव जो विपम आयुवाले तो होते हैं पर साथ साथ में एक लमय उत्पन्न होते हैं ३ । चौथे वे एकेन्द्रिय जीव जो જુદા વિશેષાધિક કમને બ ધ કરે છે? અહિયાં યાવ૫દથી વચ્ચેના બે વિપે ગ્રહણ કરાયા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે ४-'गोयमा ! निदिया चउव्विहा पण्णत्तो' हे गौतम ! मेन्द्रिय छ। या२ ५४२ना डामा मावस छ. 'त जहा' २ ॥ प्रभाले छे. 'अत्थे गइया समाउया समोववन्नगा' से त न्द्रिय । छ, यसमा मायुध्याय छ भने म साथे थाय छ 'अत्थेगइया समाच्या समोरवन्नगा' what ते मेहेन्द्रिय व साय छे मे। सभी આયુષ્યવાળા તે હેય છે, પણ એક સાથે ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ જુદા गुह समये 64-1 थाय छे. 'अत्थेगइया विसमाउया समोरवन्नगा' अत्थे गइया विसमाउया विसमोववन्नगा' मने प्रीतम दियवाणा ।। વિષમ આયુષ્યવાળા તો હોય છે, પરંતુ સાથે સાથે એક સમયમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. જેથી તે એક ઈન્દ્રિયવાળા જ જૂદા જુદા આયુષ્યવાળા પણ હોય છે, અને જૂદા જૂદા સમયમાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે. આ રીતે એક ઈન્દ્રિયવાળાં
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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