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________________ भगवतीले पर्यन्तानां तथा श्रोग्रेन्द्रियवध्य, चक्षुरिन्द्रियवध्य, रसनेन्द्रियवध्य, घ्राणेन्द्रिय वध्य-स्त्रीवेदबध्यान्तानां च कर्मप्रकृतीनां संग्रही भवति । तथा च शानावरणीयादारभ्य पुरुपवध्यान्त चतुर्दश कर्मप्रकृतीनामपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयः सर्वेऽपि वेदयन्तीतिभावः । एवं जाव वायर वणस्सइकाइयाणं पजत्तगाणं' एवम्-अपर्या त सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां यथा चतुर्दश कर्मप्रकति वेदनं कथितं तथैव यावद् चादरबनस्पतिकायिकपर्याप्तकानामपि चतुः देश कर्मप्रकृति वेदनं ज्ञातव्यम् अत्रापि यावत्पदेन पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकान्ताः मवादरामूक्ष्पर्याप्तपर्याप्तभेदमोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय तक ८ कर्मपकृतियां तथा ओनेन्द्रियवध्य चक्षुइन्द्रिय ध्य घ्राणेन्द्रिय वध्य रसनेन्द्रिय वध्य स्त्रीवेद वध्य और पुरुषवेद वध्य' इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि से लेकर दोनों प्रकार वनस्पतिकायिक तकके समस्त एकेन्द्रिय जीव ज्ञानापरणीय आदि से लेकर अन्तराय कर्म तक और श्रोनेन्द्रिय से लेकर पुरुषवेदावरण तक १४ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं। चाहे थे पर्याप्त हों अथवा अपर्याप्त हो। 'एवं जाव यायर वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं' यही बात इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है । अर्थात् अपर्याप्त सूक्षमपृथिवीकायिकों के सम्बन्ध में जिस प्रकारसे १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करना कहा गया है उसी प्रकार से यावत् पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकों के सम्बन्ध में भी १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करना कह लेना चाहिये । यहां यावत् पदसे पर्याप्त छ.-शाना१२९य, शना१२९॥य, वेदनीय, माडनीय, मायु, नाम, जात्र અને અંતરાય, સુધીની આઠ કર્મ પ્રકૃતિ તથા શ્રોત્રેન્દ્રિયવધ્ય, ચક્ષુઈદ્રિય વધ્ય ધ્રાણેન્દ્રિયવધ્ય, રસનેન્દ્રિયવધ્ય, સ્ત્રીવેદવધ્ય અને પુરૂષ વેદવધ્ય આ રીતે અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને અને પ્રકારના વનસ્પતિ કાયિક સુધીના સઘળા એકેન્દ્રિય જી જ્ઞાનાવરણીય વિગેરેથી લઈને અંતરાય કર્મ સુધી અને શ્રેગેન્દ્રિયથી લઈને પુરૂષ વેદાયરણ સુધી ૧૪ ચૌદ કર્મ પ્રકૃતિનું वहन ४२ छे. ते पर्याप्त साय है अपर्याप्त जाय 'एवं जाव वायरवणस्सइ काइयाण पज्जत्तगाण' मे पात मा सूत्र ५२१ प्रगट ४२वामी मावस છે. અર્થાત્ અપર્યાપ્ત સૂફમ પૃથ્વિીકાયિકના સંબંધમાં જે પ્રમાણે ૧૪ ચૌદ કર્મપ્રકૃતિનું વેદન કરવાનું કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણે યાવત્ બાદર વનસ્પતિ કાયિકના સંબંધમાં પણ ૧૪ ચૌદ કમ પ્રકૃતિનું વેદન કરવાનું કહ્યું છે.
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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