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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२८ उ.१ सू०१ जीवानां पापकर्मसमाजननिरूपणम् । सामान्यतो जीवाना कस्यां गतौ पापार्जनं भवतीति प्रदर्य विशेषतो जीवाना तदर्शयितुं प्रश्नयन्नाह-'नेरइयाणं' इत्यादि । 'नेरइयाणं भंते' नैरयिकाः खलु भदन्त ! 'पाचं कसं कहिं समज्जिणिसु सहि समायरिंसु' पापम्-अशुभं कम कुत्र-कस्यां गतौ हमार्जन छुन-कल्यां गतौ पापं कर्म समाचरन् कां गतिमानित्य कर्मणां संचयं कुर्वन्ति येन कर्मणा एतेषां नारकंगतौं गमनं भवतीति भन्नः। भगवाना-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वे विकास मिरेबग जोणिएसु होऊमति, एवंचेव उट्ट भंगा भाणियबा' सर्वेऽपि वात् जी लियोनिक्षेबु अभूवन उति एवं प्रकारेण अष्टायपि भङ्गा द्विनीयाटारबाट प्ररूपणीया इति । एवं समस्य वि अट्ठ भगा परमेव साध से जीनों के द्वारा किस गति में पापकर्म का उपार्जन किया जाता ह तय करके अब सुत्रकार इसी बात को विशेष रूप से प्रकट करते हैं, निजी स्वामी ने प्रसुश्री रहे ऐसा पूछा है और इया णं ! पाचं धन कहिं लज्जिणिस्तु कहिं सवास्तु' हे भदन्त ! नै जीनों किन गति में पापकर्म का उपार्जन किया है और किस मति में रखा समाचरण किया है ? अर्थात् किस गति में रहकर थे दार्थों का संचय करते है कि जिस धर्म से इनका नरकंगति में गमन होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! सव्वेदिता शिदिखजोणिएनुहोज्जा एवं चेव अभंगा भाणियव्वा हे गौत्तम ! समस्त जीच तिर्य ग्यानिक में रहे हैं इस प्रकार से यहां पूर्व के भार आठ भंग उत्तर रूप में कहना चाहिये, ‘एवं 'सव्वस्थ वि अमंगा ली कार से सर्वत्र सलेश्यादि नारक पदों में उत्तर સામાન્ય રીતે જીવે દ્વારા કઈ ગતિમાં પાપકર્મનું ઉપાર્જન કરવામાં આવે છે, આ વિષય પ્રગટ કરીને હવે સૂત્રકાર આ વાતને વિશેષ રૂપથી બતાવે છે.–આમાં ગૌતમવામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછ્યું છે કે 'नेरइयाण मंते । पाव कम्म कहि समज्जिणि सु कहिं समायरिसु' मन નરયિક જીવોચ્ચે કઈ ગતિમાં પાપકર્મનું સમાચરણ કર્યું છે ? અર્થાત કઈ ગતિમાં રહિને તેઓ કર્મોનો સંચય-સંગ્રહ કરે છે કે જે કર્મથી તેઓ નારક ગતિમાં જાય છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને छ छ ?--गोचमा सन्दे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा एवं चेव अद भगा भाणियठवा' है गौतम ! सा व तियय योनीमा २ छे, मा રીતે અહિયા પણ પહેલા કહ્યા પ્રમાણે આઠ ભંગ ઉત્તર રૂપે સમજી લેવા. 'एवं सम्वत्थ वि अट्ट बंगा' से प्रभाथे सतश्याहि ना२३ ५हामा भर
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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