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________________ भगवतीस टंट वादरतेजस्कायिकः खलु भदन्त ! समयक्षेत्रे समवहतो - मारणान्तिक समुद्घातं कृतवान्, समवद्दत्य-मारणान्तिक समुद्वातं कृत्वा यो भव्यः, 'उड्डूकोयखेतना - लीप वाहिरिल्ले खत्ते' लोक क्षेत्रनाडचा वाह्य क्षेत्रे' 'पज्जत मृहुम तेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए' पर्याप्त सुक्ष्मतेजस्कायिकतया तद्रूपेणोपपत्तुम्, 'से णं भंते! ' स खलु भदन्त | कतिसामयिकेन विग्रहेण उत्पद्येतेति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'सेसं ' इत्यादि । 'सेसं तं चेत्र' शेपमुत्तर मत्र सर्वं द्विसामयिकेच वा' त्रिसामयिकेन चा, 'चतुःसामयिकेन वा विण उत्पद्येतेत्यादिकं सर्वं पूर्ववदेवेति ज्ञातव्यमिति । ""अपज्जत बायर उक्काइरणं भंते । समयखेत समोहर' अपर्याप् वादरतेजपित्ता' 'हे भदन्त ! जो अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक समयक्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात से मरण करता हैं और मरणकरके 'जे उड्डलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते एज्जन्त सुहुमतेउका इयत्ताएउववज्जि - तर भविए' जो ऊर्ध्वलोक स्थित सनाडी के बाहरी क्षेत्रमें पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक रूपसे उत्पन्न होने के योग्य होता है तो 'से णं भंते! 'हे भदन्त ! ऐला वह जीव कितने समयवाले विग्रह से यहां उत्पन्न होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'सेस तं चेव' 'हे गौतम ! इस 'सम्बन्ध में उत्तर यहाँ 'वह वहां दो समघवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है, तीन समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है तथा चार समयवाले विग्रह से भी उत्पन्न होता है ' 'इत्यादि रूपले पूर्वोक्त जैसा ही जानना चाहिये | 'अपज्जन्त वायर तेक्काहरणं भंते ! समयखेत्ते समोहए' 'हे જે પર્યાપ્ત ખદર તેજસ્કાયિક શ્રમયક્ષેત્રમાં મારણાન્તિક સમુદ્ઘાતથી મરણુ या छे, भने भर यामीने 'जे उडढलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते पज्जत्तसुहुमते काइयत्ताए उववज्जित्तर भविए' ने वसीउमा रहेद्या त्रसनाडीना अहेशभां पर्याप्त सूक्ष्मते रायपणाथी उत्पन्न यंत्राने योग्य होय छे, 'से णं भंते 10 ' હું ભગવન્ એવે તે જીવ કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री हे छे - 'सेसं त' चेव' हे गौतम! આ સંબંધમાં ઉત્તર અહિયાં તે ત્યાં એ સમયવાળી વિગ્રહુ ગતિથી પશુ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્રણુ સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, તથા ચાર સમયવાળી વિગ્રહ ગતેથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, વિગેરે પ્રકારથી પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવે. 'अपज्जत्तवायर उक्काइएणं भंते ! समयखेत्ते समोहर के भगवन् ने
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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