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________________ ३५० जगपासून कानां मनुष्यक्षेत्रे समुद्घातः मनुष्यक्षेत्रे एवोपपातो यथाक्रमं विंशतिस्थानेषु वर्णनीय इति । वर्णनप्रकारस्तु पूर्व प्रदर्शित एव ज्ञातव्यः ॥ २४०॥ 'वउक्काइया वणस्सकाइ ग य जहा पुढवीकाइया तहेव चक्करणं भेदेणं उववाएयन्त्रा' वायुकायिका वनस्पतिकायिकाथ यथा पृथिकायिका स्तथैव चतुष्केन मेदेन सूक्ष्मवादरपर्याप्तपर्याप्तभेदेन उपपातयितव्याः । वायुकायिकोऽपि च द्विविधः सूक्ष्मो वादरश्च । सूक्ष्मोऽपि अपर्याप्त पर्याप्त भेदेन द्विविध स्तथा बादरोऽपि अपर्याप्त पर्याप्त भेदेन द्विविध स्वदेवं चतुर्विधा वायुकायिकाः । तेषां चतुष्केन भेदेन वायुकायवनस्पतिकाययोः सर्वत्र सम्भवात् पृथिवीकायिकवदेव उपपातो वर्णनीयः । (३२०) एवमेव वनस्पतिकायिकानामपि चतुष्केन भेदेन पृथिवीकाय वदेव उपपातो वक्तव्यः ॥४०० कियत्पर्यन्तं चतुर्भेदभिन्नयोः वायुवनस्पतिकायिकयोरुपपातो वर्णनीय स्तत्राह - 'जाव' इत्यादि, जाव पज्जत उपपात यथाक्रम पील स्थानों में वर्णित करना चाहिये अन्यत्र नहीं । वर्णन करनेका प्रकार पूर्व में दिखा ही दिया गया है २४० । 'वउक्काइयो वणस्सइकाइया य जहा पुढवीकाइया तहेव चक्क एणं भेदेणं उबवायच्या' पृथिवीकायिक के जैसा वायुकायिक का और वनस्पतिकायिकका अपने अपने भेदो के साथ सर्वत्र उपपाद कहना चाहिये । वायुज्ञायिक भी सक्षम और पादर के भेद से दो प्रकार का होता है इनमें सूक्ष्म वायुकाधिक भी अपर्याप्त और पर्याप्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया हैं तथा बादरवायुकायिक भी अपर्याप्त और पर्याप्त मे से दो प्रकार का कहा गया है। इस प्रकार चार प्रकार के वायुकायिके और चार प्रकार के वनस्पतिकायिक सर्वत्र संभवित होने से पृथिवीकाधिक के जैसे इनके उपपाद का वर्णन कर लेना चाहिये સ્થાને માં વન કહેવુ જોઈએ ખીજે નહી. વન કરવાના પ્રકાર પહેલાં उ५२ मताववाभा भावी गये छे. ते भुण समन्व. २४० ) 'वाउ काइया वणस्सइकाइया य जहा पुढवीकाइया तव चवक्करण भेएण' उत्रवण्यव्वा' पृथ्विीनाथन प्रमाण वायुप्रयितु अने वनस्पति કાયિકાનુ` કથન ભેદે સાથે સ્વય' મનાવીને સઘળા સ્થાનેમાં ઉષપાત સમજવે. વાયુકાયિક પણુ સૂક્ષ્મ અને બદરના ભેદથી એ પ્રકારના થાય છે. સૂક્ષ્મવાયુકાયિકા પણ અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તના ભેદથી એ પ્રકારના કહેલ છે તથા ભાદર વાયુકાયિક પણુ અપર્યાપ્ત અને પર્યાપ્તના ભેદથી એ પ્રકારના કહેલ છે. આ રીતે ચાર પ્રકારના વાયુકાયિક અને ચાર પ્રકારના વનસ્પતિકાયિકનુ ધે સંભવિત પણુ. હવાથી પૃથ્વીકાયિકની જેમ તેમના ઉપપાતનુ` વધુન
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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