________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३३ अ. श०७-८ नौल-कापोतलेश्यैकेन्द्रियाः ३०३ पक्षक कृष्णलेश्य भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकादिका अचरम भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकान्ता एकादशोद्देशका औधिकोदेशकवदेव अणितव्याः॥
इति पाठमेकेन्द्रियशातं समाप्तम् ॥ ३३॥६॥
अथ सप्तममष्टमं च शतम् ॥ मूलम्-जहा कण्हलेस भवसिद्धिएहि सयं भणियं एवं नीललेस्स भवसिद्धिएहिं विलयं भाणियव्वं ॥सू०१॥
सत्तमं एगिदियलयं समत्तं ॥३३-७॥ छाया-यथा कृष्णलेश्यभवसिद्धिकैः शतं भणितम्, नीललेश्य भवसिद्धि कैरपि शतं भणितव्यम् ॥ सप्तममेकेन्द्रियशवं समाप्तम् ॥३३॥७॥
एवं कापोतलेश्य भवसिद्धिकैरपि शतम् ॥ अष्टममेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ॥ ___टीका-'जहा कण्हलेस्समवसिद्धिएहि सयं मणियं' यथा-येन प्रकारेण कृष्णलेश्यभवसिद्धिकैः शतं भणितम् । कृष्णलेश्यभवसिद्धिकस्य शतं कथितम् ‘एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहिं वि सयं भाणिय' एवमेव नीललेश्वभवसिद्धिकरपि यावत् अचरम उद्देशक तक कहे गये हैं। उसी प्रकार से परम्परोपपत्रक कृष्णलेश्यावाले भरसिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि से लेकर अचरम भवप्तिद्धिक सूक्ष्म पृथिवीकाधिक तक के ११ उद्देशक औधिक उद्देशक के जैसे कहना चाहिये।
॥६ठा एकेन्द्रिक शतक समाप्त ॥
-- ७ व ८ वां शतक -- 'जहा कण्हलेस्स भवसिद्धिएहि सय भणियं'
जिस प्रकार से कृष्णलेश्य भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्यन्ध में शतक कहा गया है एवं नीललेस्सभसिद्धिएहि वि सयं भाणियन्वं' इसी प्रकार से नीललेश्व अवसिद्धिक एकेन्द्रियों के सम्ब. શતકમાં યાવતુ અચરમ ઉદ્દેશા સુધી કહ્યા છે, એ જ પ્રમાણે પરંપરપપન્નક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક સુધીના અગિયાર ૧૧ ઉદેશાઓ ઔધિક ઉદેશામાં કહ્યા પ્રમાણેના સમજવા પસૂ૦૧૫
| છઠું એકેન્દ્રિય શતક સમાપ્ત છે
સાતમા એકેન્દ્રિય શતક ને પ્રારંભ– 'जहा कण्हलेस्म भवसिद्धिएहि सय भणिय"
જ પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવોના સંબંધમાં शत अपामा भावेद छे. 'एवं नीललेस्स भवसिद्धिएहि वि सयं भाणियव्य"