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________________ भगवती सूत्रे १३८ रादारभ्य वैमानिकपर्यन्तानां वक्तव्यता पठनीया आलापप्रकारस्तु स्वयमेव सर्वमोहनीय इति । 'नवर' अणंदरोवनगाणं जं जहिं अस्थि तं तहिं भाणियन्त्र' terrari यद् यत्रास्ति लेश्यादिकं तत् लेश्यादिकं तत्र वक्तव्यम् । “किरियाबाईणं भंते ! अनंतशेववन्नगा नेरहया किं नेरइयाउयं पकरेति ? पुच्छा' 'क्रियावादिनः खलु भदन्त ! नैरयिकाः किं नैरयिका युष्कं प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्यो'निकायुकं कुर्वन्ति यद्वा मनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति देवायुकंवा मकुर्वन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'नो नेर'या करेंति' अनन्तरोपपत्रकाः नैरयिकाः नैरयिकसंबन्धि आयुष्कं न कुर्वन्ति 'जाव वैमाणियाणं' इसी प्रकार से प्रथम उद्देशक की वक्तव्यता जैसीअसुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के समस्त जीवों की वक्तव्यता कहनी चाहिये, इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार अपने आप सर्वत्र 'कल्पित करना चाहिये, 'नवर' अणंतरोचचन्नगाण जं जहिं अस्थि तं तहिं भणियन्त्र" परन्तु अनन्नरोपपन्नकों के जहां पर जो लेइयादिक पद हों वे वहां पर कहना चाहिये, 'किरियाबाई णं भंते! अनंतरोवचन्नमा नेरइया कि नेरहयाउयं पकरेति पुच्छा' हे भदन्त ! क्रिया'वादी अनन्तरोपपन्न गैरयिक क्या नैरथिक आयुका चन्ध करते हैं ? या तिगायु का धन्ध करते हैं ? या मनुष्यायु का बन्ध करते है ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! नो नेरइयायं पकरेंति नो तिरिक्खाउयं पकरेति णो मणुस्साज्यं, णो देवयं' हे गी ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्न नैरयिक न नैरयिक आयुका बन्ध करते है न तिर्यगायु हा बंध करते है न मनुष्यायुका बन्ध गाडियां भिन्न यागु छे 'एव सव्वजीत्राण जाव वैमाणियाण' या अभा પહેલા ઉદ્દેશામાં કહેલ નારક જીવે ના કથન પ્રમાણે પૃકાયિકાથી લઇને વૈમાનિક સુધીના સઘળા જીવોના સ ય્ ધમાં હેવું જોઈએ આ સ મધમાં આલાપ પ્રકાર સ્વયં બતાવીને સમજી લેવા 'णवर' अनंत रोववन्नगाण जं जहि अस्थित तहिं भाणियन्त्र' परतु थान तरेपिपन्ना नैरयिना सणधभां यो ? बेश्या संमधी यह होय ते पहत्या डेवाले थे 'किरियवाई णं भंते ! अतरोन्नता नेरइयो कि नेवइयाउयं पकरेति पुच्छा' हे भगवन् प्रियावाही મન તરાપપન્નક નૈયિક શુ' નારિયેક આયુને ખંધ કરે છે ? અથવા તિયચ આયુના બંધ કરે છે ? અથવા મનુષ્ય આયુને ખધ કરે છે ? અથવ! દેવ 409 युनो रे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री हे है है- गोयमा ! नो राज्यं परे तिनो तिरिक्खजोणिय उच' पकरे ति, णो मणुस्प्राउयं, णो देवाउयं
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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