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________________ ११४ भगवती सूत्रे सश्यानां तिर्यकपञ्चेन्द्रियाणामेवं विधस्त्ररूपतयोक्तत्वादिति । 'नवर' अकिरियाair वाई वेणइयवाई य णो णेरइयाउयं पकरेति' नवरं केवलमेतदेव वैलक्षण्यं यत् अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च न नैरयिकायुक प्रकुर्वन्ति किन्तु 'देवापि परे ति' देवायुष्कमपि मकुर्वन्ति, 'तिरिक्खजोणियाउयं पि करेंति' तिर्यग्योनिकायुष्कमपि मकुर्वन्ति । 'मणुस्साउयंवि पकरेंति' मनुष्यायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति 'एवं पम्हलेस्सा वि एवं सुकलेस्सा वि भाणियव्वा' एवमुपरोक्तक्रमेण पद्मश्यापरिणामवन्तः एवं शुक्ललेश्यापरिणामवन्तोऽपि भणितव्याः कथयितव्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका इति, एत्र मिमे चापि यदा क्रियावादिनः तदा केवलं देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति, यदा अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो चैनयिकवादिनश्च भवन्ति तदा त्रिविधमपि आयुष्क प्रकार के परिणाम होते हैं ऐसा पहिले कहा गया है। 'नवरं अकिरियाबाई, अन्नाणियवाई, वेणहयबाईय णो णेरइयाज्यं पंकरेति' किन्तु अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च नैरयिक आयु का बन्ध नहीं करते हैं। वे तो 'देवाच्यं पि पकरेति' देवायु का भी बन्ध करते हैं। 'तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति' तिर्यगायु का भी बन्ध करते हैं । 'मनुस्साउयं पकरेति' मनुष्य आयुका भी बंध करते हैं। 'एवं पम्लेस्सा वि एवं सुक्कलेस्सा विभाणियव्या' इसी प्रकार से पद्मलेश्या परिणामवाले पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और शुक्ललेश्या के परिणामवाले पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च भी जानना चाहिये, ये जिस समय क्रियावादी होते हैं तब केवल देवायु का ही यन्ध करते हैं और जब ये ' अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी होते हैं तब तीनों, प्रकार की आयुका बन्ध करते हैं। पर नारकायुक्का बन्ध नहीं करते हैं हाय छे, ते प्रभा] पडेला उडेस ४ छे, 'नवर अकिरियावाई, अन्नाणियवाई वेणइवाई णोंरइयाउ पकरे ति' परंतु यावादी अज्ञानवाही भने वैनयिवाही यथेन्द्रिय तिर्यग्य नैरयि आयुष्यना मध उरता नथी तेथे ते 'देवाय' पि पकरे ंति' देवमायुन। मौंध उरे छे, 'तिरिक्खजोणियाउयं पिपकरे 'ति' तिय" यमायुना मध ४२ छे. 'मणुस्खाउय पिपकरेंति' मनुष्य आयुनो' पशु गंध रे छे. ' एवं पम्हलेस्सा वि एवं सुक्कलेस्सा वि भाणियव्वा' थेट प्रभा यद्म વૈશ્યાના ણિામવાળા પંચેન્દ્રિય તિયચ અને શુકલ લેસ્યાના પરિણામવાળા પચેન્દ્રિય તિય ચના સબંધમાં પણ સમજવું. તેએ જ્યારે ક્રિયાવાદી હૈાય છે, ત્યારે કેવળ દેવ આયુના જ ધ કરે છે. અને જ્યારે તેએ અક્રિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વૈયિકવાદી હાય છે, ત્યારે તેએ ત્રણે પ્રકારના આયુને
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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