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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०३० ७.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् ९३ नो न वा वानव्यन्तरदेव संवन्धि आयुष्कं वध्नन्ति 'नो जोइसिय०' नो न वा ज्योतिष्कदेवायुर्वन्ति किन्तु 'वैमाणियदेवाउयं पकरें ति' वैमानिकदेवसम्बन्धि आयुष बन्धा मनः पर्यवज्ञानिनो भवन्तीति । 'केवलनाणी जहा अलेस्सा' केवल ज्ञानिनो यथा अलेश्याः केवलज्ञानिनोऽलेश्यवद्व्याख्येयाः केवलज्ञानिनां न कस्यापि आयुषो वन्धो भवति, तेषामायुर्वन्धकारणीभूतस्य मोहनीयादेः कर्म बीजस्य केवलज्ञानाग्निना दग्धत्वात् दग्धवीजानां चाङ्करोत्पत्तेरभावादिति । रागादिक्लेशसलिल सिक्तायां हि जीवभूमौ कर्मवीजानि अङ्कुराणि मसुत्रते, केवळज्ञाननिदाघतताया मुबरमायायां जीवभूमौ तु कर्मत्रीजानि न संसाराङ्कुरं णवासिदेवाउय पकरेंति' वे भवनवासी देवों की आयुका बंध नहीं करते हैं'' बाणमंतर' वानव्यन्तर देवों की आयुमा बंध नहीं करते हैं 'नो जोइसिय०' न ज्योतिषिक देशों की आयुका बंध करते किन्तु - 'वैमाणि देवाउय ०' वे वैमानिक देवायुका बंध करते हैं । 'केबलनाणी जहा अलेस्सा' अलेश्य जीवों के जैसे केवलज्ञानी जीव किसी भी आयुका बंध नहीं करते हैं। क्योंकि उनका आयु कर्म ध का कारण भूत जो मोहनीय आदि कर्म हैं वह केवलज्ञानरूप अग्नि के द्वारा दग्ध हो जाता है। जिस अंकुर का बीज दग्ध हो जाता है उससे फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है । यह मोहनीयकर्म का बीज है । जब जीव रूप भूमि रागादिक्लेश रूप जल से सिञ्चित होती रहती है तब उसमें कर्म बीज रूप अंकुर उत्पन्न होते रहते हैं । और जब वही जीव रूपी भूमि केवलज्ञानरूपी निदाघ से तप्तायमान होती उत्तरसां अनुश्री हे छे - 'गोयमा डे गौतम! 'णो भवणवासि देवाच्य पकरें'ति' तेथे। लवनवासी देवाना आयुष्या मंध उरता नथी, 'णो वाणमंतर ' वानव्यन्तर हेवाना व्यायुष्यनो अधरता नथी. 'नो जोइसिय' ज्योतिष्णु देवाना आयुष्य अधरता नथी. परंतु 'वेमाणिय देवान्य' तेथे वैभानि देव मानो धरेछे 'केवलनाणी जहा अलेस्सा' बेश्या विनाना भवना થન પ્રમાણે કેવળજ્ઞાની જીવે. કોઈપણુ આયુનેા બંધ કરતા નથી કેમ કે તેઓનું આયુષ્ય ૪ ખંધના કારણભૂત જે મેાહનીય વિગેરે કમ છે, તે કેવળજ્ઞાનરૂપ અગ્નિદ્વારા ખળી જાય છે. જે કુરના ખી મળી જાય છે, તેનાથી કુર ઉગતા नथी. આ માહનીય કમ નું ખી છે. જ્યારે જીવ રૂપ ભૂમિ રાગ વિગેરે લેશ રૂપ પાણીથી સીંચાતી રહે છે, ત્યારે કમ બીજરૂપ અ’કુર તેમાં ઉત્પન્ન થતા રહે છે. અને જ્યારે એજ જીવ રૂપભૂમી કેવળજ્ઞાનરૂપી તાપથી તપાયમાન થતી ઉસર ભૂમિના જેવી બની જાય "
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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