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________________ ७१ shree fन्द्रका टीका श०३० उ. १ सू०१ जीवानां कर्मबन्धकारणनिरूपणम् तत्मयोजकजीवपरिणामसद्भावादवादिन इति कथितम् । एवं पुढवीकाइयां णं जं afrate सवत्थ वियाई दो मज्झिल्लाई समोसरणाई' एवं पृथिवीकायिकानां दस्ति तत्र सर्वत्रापि एते द्वे मध्यमे समवसरणे, पृथिवीकायिकानां यदस्ति सश्यादिपदं तत्र सर्वत्रापि मध्यमम् 'अक्रियावादिनोऽपि अज्ञानिकवादिनोऽपि ' इत्याकारकं समवसरणद्वयं ज्ञातव्यम्, सल्लेश्य - कृष्ण लेश्य-नीललेश्य- कापोतलेश्य तेजोलेश्य कृष्णपाक्षिक-सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि - सम्यग्मिथ्यादृष्टि - ज्ञान्याभिनि बोधिकज्ञा निश्रुतज्ञान्यधिकज्ञान्यज्ञानिमत्यज्ञानि श्रुताज्ञानि विभङ्गज्ञान्याहारसंज्ञोपयुक्त यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्त सवेदकनपुंसकवेदकसकषायि यावल्लोभकषायि सयोगि -मनोयोग-वचनयोगि साकारोपयुक्ताः, इत्यादिषु यत्पदं सम्भवति तेषु पदेषु dafonवादी नही होते हैं। क्योंकि इनमें विनयवाद के योग्य परिणाम नहीं है । ' एवं ' पुढवीकायाणं जं अस्थि तस्य सव्वत्थ वि एयाई दो मज्झिरलाई सम्मोधरनाई' इसी प्रकार से पृथिविकायिक जीवों में जोजो लेश्यादिक पद संभवित होते होवें उन-उन समस्त पदों में ये दो ही - अमियाचादित्व और अज्ञानबादित्व- समवसरण कहना चाहिये । इस प्रकार सलेश्य कृष्णलेश्य, नीललेश्य फापोतलेइय, तेजोलेश्य, कृष्णपाक्षिक, शुक्ल पाक्षिक, सम्पदृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी, आमिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अज्ञानी, मध्यज्ञान, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह संज्ञोपयुक्त, सवेदक नपुंसकवेदक, सकषायी, यावत् लोभकषायी, संयोगी, मनोयोगी, बचनशेगी, ताकारोपयुक्त, अनाकारोपयुक्त, इत्यादि सहूलाव होवाथी तेयामां वयन योगनो सद्दभाव ह्यो छे. 'णो वेणइयवाई' પૃથ્વીકાયિક જીવ વૈનયિકત્રાદી હાતા નથી. કેમ કે તેએમાં વિનયવાદને ચેાગ્ય 'परिलाभ होतु' नथी. 'एव' पुढवीकाइयाणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दो मज्जिललाई समसरणाई' मेन असा पृथ्वी अयि वोमां ने ने बेश्या વિગેરે પદા સભવિત ડાય છે, તે તે સઘળા પદૅમાં આ એજ અટલે કેઅક્રિયાવાદી પણુ અને અજ્ઞાનવાદી પણું સમવસરણુ કહેવા જોઈએ. આ रीते वेश्यावाणा, डूष्णुश्यावाणा, नीझसेश्यावाणा, अये तझेश्यावाजा, तेले. सेश्यावाजा, कृष्णणुपाक्षि, शुपाश्चि सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्या दृष्टि, ज्ञानी, मलिनिमोधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, औधिज्ञानी, अज्ञानी, भति મજ્ઞાની, શ્રુતઅજ્ઞાની, વિભગજ્ઞાની આહારસ'જ્ઞાપયેગી યાવત્ પરિગ્રહસ`જ્ઞાપयुक्त, सवे, नयुस, सषायी यावत् से भाषायी, सयोगी, मनोयोगी વચનયોગી, સાકારાન્ચે ગત્રાળા, અનાકારપ ચેગવાળા વિ पैडी ने-ने
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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