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________________ भगवतीमत्रे यावत्-कल्योजा अपि भवन्तीति-उत्तररूपेण एकत्वपृथक्त्वाभ्याम् एकवचन बहुवचनाभ्यां दण्डकः कर्तब्ध इति भावः । 'एवं जाव काखफास पज्ज वेहि' एवम् -नीलवर्णपर्यायादेव पीत-रक्तश्वेतवर्णादारभ्य सुरभि-दुरभिगन्ध-पञ्चरसतिक्त-कटुकपायाम्ल-मधुराष्टरपर्श-कर्कश-मृदु, गुरु-लघु, शीतोष्ण, स्निग्धरूक्षसंवन्धि पर्यायविपयेऽपि दण्डकाः कर्तव्या इति। ' जीचे णं भंते ! आभिणिबोडियणाणपज्जवे हिं कि 'कडजुम्मे पुच्छर ? जीवः खलु भदन्त ! आभिनियोधिकज्ञानपर्यायः किं कृतयुग्मः पृच्छा ? हे ओघादेश से कदाचित् वे कृतयुग्मरूप भी होते हैं और कदाचित् वे पावत् कल्पोजरूप भी होते हैं । इसी प्रकार वे विशेष की अपेक्षा से शरीरविशिष्ट जीव के ग्रहण होने के कारण कृतयुग्मरूप भी होते हैं और यावत् कल्पोजरूप भी होते हैं । इस प्रकार जीव के एकत्व को और यहवचन को लेकर दण्डक नीलवर्णपर्यापों में कृनयुग्मता आदि होने के सम्बन्ध में कहना चाहिये । 'एवं जाव लुक्खफासपज्जवेहि' नीलवर्णपर्याय के जैसा ही पीन, रक्त, श्वेतवर्ण से लेकर सुरभि, दुरभि. गन्ध की पर्यायों में कृतयुग्मता आदि होने के सम्बन्ध में पश्चरमों तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, मधुर इन पांच रसों की पर्यायों में कृतयुग्मता आदि होने के सम्बन्ध में तथा आठ स्पर्शी-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीतोष्ण, स्निग्ध, और रूक्ष इन स्पर्टी की पर्यायों में कृतयुग्मता आदि होने के सम्बन्ध में भी दण्डक कहना चाहिये। 'जीवे गं भंते । आभिणियोहियनाणपज वेहि कि कडजुम्मे पुच्छा' इस सूत्र द्वारा श्री गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-हे भदन्त ! जीव યાવત કલ્યાજ રૂપ પણ હોય છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ વિશેષની અપેક્ષથી શરીરવાળા જીવનું ગ્રહણ થવાથી કૃતયુગ્મરૂપ પણ હોય છે. અને યાવત્ કલ્યાજ રૂપ પણ હોય છે. આ પ્રમાણે જીવ સ બ ધી એકવચન અને બહુવચનના આશ્રયવાળે દંડક નીલવણું પર્યાયામાં કૃતયુગ્મપણું વિગેરે હોવાના સંબંધમાં કહેવા न्य. 'एव जाव लुक्खफासपज्जवेहि नस पर्याय समधी थन प्रभार પીળા રાતા, અને વેત-ધોળા વણથી લઈને સુગંધ અને દુર્ગધુના પર્યા માં કૃતયુગ્મપણું વિગેરે હોવાના સંબંધમાં, તીખા, કડવા, તુરા, ખાટા, અને મીઠા આ પાચે રસોના પર્યાયમાં કૃતયુગ્મપણું વિગેરે હોવાના સંબંધમાં तथा श, , शु३, धु, शीत, G, स्निग्य भने ३६ मा २५शवाणा પર્યામા કૃતયુગ્મપણું વિગેરે હેવાના સ બંધમા પણ દડકે સમજવા ___ जीवे णं भंते ! आभिणिबोदियनाणपज्जवेहि कि काजुम्मे पुच्छा' मा
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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