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________________ ७१४ भगवतीस्त्रे विरोधेन गतिर्भरतीति । 'एवं जाव अणं तपएसियाणं खंधाणं' एवं यावदनन्तप्रदेशिकानां स्कन्धानाम् । यावत्पदेन त्रिप्रदेशिकादारभ्य दशमदेशिकानां संख्याताऽसंख्यातप्रदेशिकस्कन्धानां ग्रहणं भाति । तया च-त्रिप्रदेशिकमारभ्य यावदनन्तमदेशिकस्कन्धानामपि श्रेणीमनुमृत्यैत्र गतिर्भवति-न तु-श्रेणीपातिकूल्येन गतिर्भवतीति भावः । 'नेरहया णं भंते ! किं अणु से दि गई पवत्तइ- विसेढि गई पवचइ ?' नैरयिकाणा मनुश्रेणि गतिः पपर्त्तते-विश्रेणि गतिः प्रवर्तते ? हे भदन्त । नारकजीवानां गमनादिकं श्रेणीमनुसृत्य प्रति ? श्रेण्यतिक्रमेण वा गमनादिकं ( भवतीति प्रश्नः ? उतरमाह-एवं चे' एवमेव-यथैव परमाणुपुद्गलादारभ्य श्रेणि के बिना नहीं होती है । 'एवं जाव अणंतपएसिया णं' इसी प्रकार से यावत् अनन्त प्रदेशों वाले पुद्गलस्कन्धों की गति होती है। यहां यावत्पद से तीन प्रदेशों वाले स्कन्धों से लेकर १० प्रदेशों वाले स्कन्धों का संख्यातप्रदेशों वाले स्कन्धों का और असंख्यात प्रदेशों वाले स्कन्धों का ग्रहण हुआ है। ___अब श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'नेरइया णं भंते ! किं अणुसेटिं गई पवत्तह विसे दि गई पबत्तई' हे भदन्त ! नरयिक जीवों की जो गति होती है यह क्या श्रेणि के अनुसार होती है। अथवा श्रेणि के विना होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'एवं चेव' हे गौतम! परमाणु पुगल से लेकर अनन्त प्रदेशों वाले स्कन्धों की जैसी गति होती है-वैसी ही गति परभव को जाते समय नैरयिक जीवों की होती है अर्थात् जब नैरयिक जीव नरकावास में उत्पन्न होता है तब वह वहां आकाश के प्रदेशों हाय छे श्रेणी विना ती नथी. 'एव जाव अणतपएसियाणं' मे प्रभार થાવત્ અનંત પ્રદેશેવાળા પદ્ગલ સ્કધાની ગતી હોય છેઅહીંયાં યાવત્ પદથી ત્રણ પ્રદેશેવાળા , ધોથી લઈને ૧૦ પ્રદેશોવાળા સ્ક છે, સંખ્યાત પ્રદેશો વાળા સ્ક, અને અસંખ્યાત પ્રદેશોવાળા સ્કંધે ગ્રહણ થયા છે. वे श्रीगीतभस्वामी प्रभुश्रीन पूछेछ -'नेरइयाण भंते ! किं अणुसेढि गई पवत्तइ, विसे ढिं गई पवत्तई' 8 सन् ! न२४४ वानी २ ગતી હોય છે. તે શું શ્રેણીની અનુસાર હોય છે. અથવા શ્રેણી વગર હાથ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वाभान छ 'एवं घेव' ગોતમ પરમાણું પુથી લઈને અને તે પ્રદેશોવાળા ૪ ધોની જેવી ગતી હોય છે. તેવી જ ગતી પરભવમાં જતી વખતે નિરર્થક જીની હોય છે. અર્થાત જ્યારે નરક જીવ નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે ત્યાં આકા
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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