SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 703
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०५ लोकस्य परिमाणनिरूपणम् ६८५ र्धाध आयता अपि श्रेगयः, यावत्पदेन पूर्वपश्चिमायता अपि श्रेगयः, दक्षिणो तरायता अपि इत्यनयोः संग्रहः तथा च-पूर्वपश्चिमायताः श्रेगया दक्षिणोत्तरायताः श्रेगयः, ऊर्धाय आयता अपि श्रेणयः नो संख्याताः नो असंख्याताः किन्तु-अनन्ता एव भनन्ति, उपसंहारमाह-'सदाओ-अणंताओ' सर्वाश्च-पूर्वा. पर-दक्षिणोत्तरो ऽध आयताच लोकाकाशश्रेगयोऽनन्ता एव भवन्तीति । ____ अथ-लोकाकाशमधिकृत्य प्रदेशार्थतया-प्रदेशप्रकारेण श्रेणिस्वरूपनाह'लोगागाससेढोओ' इत्यादि। 'लोगागाससेढीओ णं भंते | एएसहयाए कि संखेज्जा पुच्छा ?' लोकाफाशश्रेणयः खलु भदन्त ! प्रदेशार्थतया कि संख्याता'-असंख्याता:- अनन्तावेति प्रश्नः ? मगानाह-'गोयमा' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय संखेजाओ' अपेक्षा से यावत् ऊपर से नीचे तक भी आकाशप्रदेशभाग में अनन्त ही हैं -संख्यात असंख्यात नहीं हैं ऐसा जानना चाहिये । यहां यावत्पदसे 'पूर्वपश्चिमायताः श्रेगयः दक्षिणोत्तरा आयताः श्रेगयः नो संख्याताः नो असंख्याताः अपि तु अनन्ता एव' इस पाठ का संग्रह हुआ है। 'सव्वाओ अणंताओ' इस प्रकार ये सब लोशाकाश अलोकाकाश रूप सामान्य आकाश की श्रेणियां प्रदेशों की अपेक्षा से पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण ऊपर नीचे सर्वत्र अनन्त ही हैं। अब गौतमस्थामी लोकाकाश को लेकर प्रदेशों की अपेक्षा से श्रेणिके स्वरूप को पूछते हैं 'लोगापाससेढीओ णं भंते ! पएसहपाए कि संखेज्जा पुच्छा' हे भदन्त ! प्रदेशों की अपेक्षा लेकर लोकाकाश की श्रेणियां क्या संख्यात हैं ? अथवा असंख्यात हैं ? अथवा अनन्त हैं ? इसके उत्तर में प्रभु उनले कहते है-'गोयमा! सिय ઉપરથી નીચે સુધીના આકાશ પ્રદેશ ભાગમાં અનંત જ કહેલ છે.–સંખ્યાત हैं मसभ्यात ही नथी. तभ सभा'. मडीयां या१५४थी 'पूर्व पश्चिमायता. श्रेणयः दक्षिणोत्तरा गायता श्रेणयः नो सख्याताः नो असख्याताः, अपितु अनन्ता एव' मा पाइने सघड थये। छ. 'सव्वाओ अणंताओ' मा शत या सघा લકાકાશ અલકાકાશ રૂપ સામાન્ય આકાશની શ્રેણી, પ્રદેશની અપેક્ષાથી પૂર્વ પશ્ચિમ ઉત્તર દક્ષિણ ઉપર નીચે બધે જ અનંત જ છે. હવે શ્રી ગૌતમસ્વામી લોકાકાશને લઈને પ્રદેશની અપેક્ષાથી શ્રેણીના २१३५ विश पूछे छे ४-'लोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसटुयाए कि' संज्जा પુરઝા હે ભગવન પ્રદેશની અપેક્ષાથી કાકાશની શ્રેણીયો શું સંખ્યાત છે? અથવા અસંખ્યાત છે ? કે અનંત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy