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________________ प्रमेयश्चन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०३ प्रदेशतोऽवगाहतश्च संस्थाननि० ६२९ ..००, तद जघन्यतश्चत्वारिंशल्पदेशिकं चत्वारिंशत्म देशावगाढंच प्रज्ञप्तम, ' एतस्य स्थापनेत्यम् आ. नं. २ विंशतिप्रदेशिकस्य प्रतरपरिमण्डलस्यैवोपरि विंशतिमदेशि के अन्यस्मिन् पतरे दने च चत्वारिंशत्पदेशिकं घनपरिमण्डलं .... भातीति । 'उकोसेणं अणंतपएसिए असंखेन्जपएसोगाढे पन्नत्ते' उत्कमा नं. २ र्षेण अनन्तमदेशिकमसंख्यातप्रदेशावगाच घनपरिमंडलं भवतीति । __ 'वणं भंते ! संठणे' वृत्तं खलु भदन्त ! संस्थानम् 'कहपएसिर कइपएसोंगाढे पन्नतें' कतिपदेशिकं तथा कतिपदेशावगाढम्, कति कियन्तः क्रियत्संख्यकाः प्रदेशा विद्यन्ते यस्मिन् तर कतिप्रदेशिकम् तथा कतिपदेशावगाढम् ? इति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बट्टे संठाणे दुविहे पन्नत्ते' वृत्तं संस्थान द्विविधं प्राप्तम् । प्रकारभेदमेव दर्शयति-'तं जहा' इत्यादिना, 'तं 'तत्थ णं जे से घणपरिमंडले' जो घनपरिमंडल संस्थान है 'से जहन्नेणं चत्तालीसपएसिए चत्तालीप्तपएसोगोढे पन्नत्ते' वह जघन्य से ४० प्रदेशों वाला होता है और चालीस प्रदेशों में इसका अवगाह होता है। इसका आकार सं. टीकामें आ०२दो से दिया है २० प्रदेशों वाले प्रतर परिमंडल के ही ऊपर दूसरे २० वीस प्रदेश वाले प्रतर के देने पर चालीस प्रदेशों का यह घनपरिमडल होता है। यह 'उक्कोसेणं अणं सपएसिए' उत्कृष्ट से अनन्त प्रदेशों वाला होता है और 'असंखेज्ज पएसोगाढे' असंख्यात प्रदेशों में इसकी अवगाहना होती है। 'वढे णं भंते । संठाणे कइपएसिए कहपएसोगाढे पन्नत्ते' हे भदन्त ! प्रत्त संस्थान कितने प्रदेशों वाला है और कितने प्रदेशों में उसका भव गाढ होता है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा वट्टे संठाणे देविहे जे से घणपरिमंडले' मा धनपरिभ3a सस्थान छ, ‘से जहन्नेणं चत्तालीस पएसिए चत्तालोसपएसोगाढे पन्नत्ते' त धन्यथा ४० याजीस प्रशवाय છે. અને ચાળીસ પ્રદેશોમાં તેને અવગાહ થાય છે. તેનો આકાર 'સં. ટીકામાં આ નં. ૨ માં બતાવેલ છે.-૨૦ વીસ પ્રદેશેવાળા પ્રતર પરિમંડલની ઉપર બીન ૨૦ પ્રદેશવાળા પ્રતિરો આપવાથી ૪૦ ચાળીસ પ્રદેશનું આ ઘનપરિમંડલ હેય है. तथा 'उकोसेणं अणंतपएसिए' Greथी ते मनात प्रशीवाणु थाय छ भने "असंखेज्जपएसोगाढे' असभ्यात प्रदेशमा तनी साहना थाय', ' वणं भंते । सठाणे कइपएसिए कइपएसोगाढे पन्नत्ते' हे सगपन वृत्त 'सस्थान हा પરેશ વાળું હોય છે? અને કેટલા પ્રદેશમાં તેને અવગાઢ થાય છે ? આ प्रशन उत्तरमा प्रभु माने ४ छ है-'गोयमा ! पट्टे सठाणे दुविहे पन्नचे
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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