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भगवतीसंत्रे ग्राह्यमिति भगवन्तं श्री महावीरस्वामिनं मति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पन्नत्ते' परिमंडलं खलु संस्थान द्विविधं प्रज्ञप्तम्, द्वैविध्यमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादिना। 'तं जहा घण. परिमंडले य पयरपरिमंडले य' तद्यथा-घनपरिमण्डलं च प्रतरपरिमंडलं च 'तत्य गंजे से पयरपरिमंडले' तत्र खलु यत् वत् मतरपरिमण्डलं संस्थानम् ‘से जहन्ने] 'वीसइपएसिए वीसइपएसोगाढे' तद् जघन्यतो विंशतिमदेशिकं विंशतिमदेशावगाढं
चेति । तत्र प्रतरपरिमण्डलं जघन्यतो विंशतिप्रदेशिकं भवति, तदेवमस्य स्थापना .० ० ० ० ० ० ०. 'उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव' उत्कर्पणाऽनन्तप्रदेशिकं तथैव असंख्या....... तप्रदेशावगाहमित्यर्थः। 'तस्थणंजे से घणपरिमंडले' तत्र खलु यत् तद आ० १ घनपरिमण्डलम् ‘से जहन्नेणं चत्तालीसपएसिए चत्तालीसपएसोगाढे पन्नत्ते' प्रश्न है । इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-'गोयमा! परिमंडलेणं संठाणे दुविहे पनत्ते' हे गौतम! परिमंडल संस्थान दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' -जैसे-'घणपरिमंडले य पयरपरिमंडले य' धनपरिमंडलसंस्थान और प्रतरपरिमंडलसंस्थान 'तत्थ गंजे से पयरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसह पएसिए वीसइपएसोगाढे' इनमें जो प्रतर परिमंडल संस्थान है वह घीस प्रदेशों वाला होता है और आकाश के बीस प्रदेशों में इसका अवगाह (रहना) होता है। यह कथन जघन्य की अपेक्षा से है। इसका आकार-सं. टीकामें आ०१ से दिया है 'उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव' तथा उत्कृष्ट से यह प्रतरपरिमंडल संस्थान अनन्त प्रदेशों वाला होता है और आकाश के असंख्यात प्रदेशों में इसका अवगाह होता है प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री ४ छ -'गोयमा ! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पन्नत्ते' उ गीतम! परिभ3स सस्थान में प्रा२नु ४७स छे. 'तं जहा' a मा
प्रमाणे छे. 'घणपरिमंडले य पयरपरिमंडले य' धन परिभ3 संस्थान अन ; प्रत२ परिभस .सस्थान 'तत्थ णं जे से पयरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसइपए: सिए वीसइपएसोगाढे' तभा २ प्रत२ परिभ संस्थान छ, a वीस प्रशाવાળું હોય છે. અને ૨૦ વીસ પ્રદેશમાં એટલે કે આકાશના વીસ પ્રદેશમાં તેને અવગાહ (રહેવાનું) થાય છે. આ કથન જઘન્યની અપેક્ષાથી કરેલ છે. सनी मा२ स. टीभीमा० न. १ मा मतावर छ.-'सक्कोसेणं अणतपएसिप तहेव' तथा दृष्टया मा प्रत२ परिभ सयान मन त प्रदेशवाणु 3.य छे. ममाशन मसभ्यातमा प्रदेशमा तना अगाड डाय छे. ' तत्थ णं