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________________ ५१४ = भगवतीसूत्रे : उत्कणाऽपि त्रयस्त्रिंशत्यागरोपमाणि द्वाम्यां पूर्वकोटीम्यामभ्यधिकानि प्रथम मनुष्यभरे जघन्या स्थितिवर्षपृथक्-प्रमिता, सः सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थिति सुबत्त्या पुनर्मनुष्य मवे पृथक्त्वस्थितिको जातः सन् मोक्षं गच्छति 'द्वाभ्यां वर्ष पृथस्वाभपधिकानीत्युक्तम् ए मुकर्पतः द्वाभ्यां पूर्वकोटीभ्यामभ्यधिकानीत्युक्तं तदपि मत्रुप्य मयाह यमपेक्ष प्रोक्तमित्यतो मनुष्यभवद्वय सर्वार्थसिखदेव भनेतिभवश्य स्थितिमाश्रित्य कायसंथेधो विज्ञेय इति । 'एवइयं जाव करेजा एतान्स काल मध्यगति सर्वार्थसिद्धकदेवगतिं च सेवेत तथा एतावदेव कास है और 'उनकोसेण वि तेत्तीसं सागरोचमाई दोहिं पुब्धको अहियाइ' उत्कृष्ट से ली दो पूर्वकोटि से कुछ अधिक ३३ सागरोपम का है । पहिले मनुष्य भव में जघन्गस्थिति वर्षपृथक्त्व की है । सो ऐसा वह मनुष्य सर्वार्थमिद्ध में ३३ सागरोपम की स्थिति को मिोगर पुनः मनुष्य भर में वर्षपृधात्व की स्थितिवाला होता है और मोक्ष चला जाना है । इसलिये जघन्य स्थितिकाल की अपेक्षा लेकर ३३ तेतीस लागरोपम और दो वर्ष पृथक्त्व से अधिक कही है। तथा जो उत्कृष्ट स्थिति दो पूर्वकोटि अधिक ३३ तेतीस सागरोपम की । कही गई है वह भी दो पूर्वकोटि की उत्कृष्ट स्थितिवाले मनुष्य भव को आश्रिय करके कही गई है। इस प्रकार मनुष्य के दो भा और सर्वासिद्धदेष अब इन तीन भवों को आश्रित करके कायसंवेध कहा गया है । 'एवइयं जाव करेज्जा' इस प्रकार से वह जीव इतने कालतक - ललुप्यगति का और सर्वार्थसिद्धदेवगति का सेवन करता है और २५मना छ, भने 'उकोसेण वि तेत्तीस सागरोवमाइ दोहिं पुनकोडीहि अभ हियाइ' rgbटथी ५६५ मे पू रथी ४४४ मधि: 33 तेत्रीस सागरामना છે. પહેલા મનુષ્ય ભવ જઘન્ય સ્થિતિ વર્ષપૃથવની છે તે એવી તે મનુષ્ય સર્વાવ સિદ્ધમાં ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમની સ્થિતિને ભેળવીને ફરીથી મનુષ્ય ભવમાં વર્ષ પ્રથકૃત્વની સ્થિતિવાળો થાય છે અને મોક્ષ ગતિમાં જાય છે તેથી જઘન્ય કાળની સ્થિતિને લઈને ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમ અને બે વર્ષ પૃથફત્વથી અધિક કહી છે. તથા જે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે પૂરકટિ અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમની કહી છે. તે પણ બે પૂર્વ કેન્ટિની ઉત્કૃષ્ટ રિથતિવાળા મનુષ્યભવનો આશ્રય કરીને કહેલ છે. આ રીતે મનુષ્યના બે ભવ અને સર્વાર્થસિદ્ધ ११ शते तर भवानी माश्रय ४शन यसवेध छे. 'एवइयं जाब करेजा' मा शत त. मारहाण सुधा मनुष्यातिन भने सायद
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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