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प्रमेयंचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२४ सू०२ सनत्कुमारदेवोत्पत्तिनिरूपणम् .. ४९७ सहस्रारदेवस्थापि वक्तव्यता ब्रह्मलोकादारभ्य सहस्रारदेवपर्यन्त ब्रह्मलोकसदृशी आगमविभागशो ज्ञातव्येति भावः, यावत्पदेन-लान्तकमहाशुक्रयोग्रहणम् । 'नवरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा' नवरं केवलं लान्तक-महाशुक्र-सहस्रारदेवानों स्थिति संवेधं च भिन्न भिन्नरूपेण जानीयादिति । जघन्येन तत्र-लान्तके जघन्येन दशसागरोपमा, उत्कर्षेण चतुर्दशसागरोपमा, महाशुक्रे चतुर्दशसागरोपमा, उत्कर्षेण सप्तदशसागरोपमा, सहस्रारे जघन्येन सप्तदशसागरोपमा, उत्कर्षेण अष्टादशसागरोपमेति भावः। 'लंतगादीणं जहन्न कालटिइयस्स तिरिक्खजोणियस्स' भी वक्तव्यता है अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर सहस्रार तक के देयलोकों की वक्तव्यता भी ब्रह्मलोक के गमों के विभाग के अनुसार है ऐसा जानना चाहिये । यहां यात्रद से 'लान्तक और महाशुक' इन दो देवों का ग्रहण हुआ है। 'नवरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा' इस प्रकार लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार देवों की बक्तव्यता ब्रह्मलोकदेव की वक्तव्यता के जैसी ही है-परन्तु उस वक्तव्यता से इस वक्तव्यता में अन्तर यदि कोई है तो वह स्थिति और संवेध द्वार को लेकर है। जैसे-लान्तक में जघन्य स्थिति दश सागरोपम की है और उत्कृष्टस्थिति १४ सागरोपम की है । महाशुक्र में जघन्य स्थिति १४ चौदह सागरोपम की है
और उत्कृष्टस्थिति १७ सागरोपम की है । सहस्रार में जघन्यस्थिति १७ सागरोपम की है और उत्कृष्टस्थिति १८ अठारह सागरोपम की है 'लंतगादीणं जहन्नकालाष्ट्रियस्त तिरिक्खजोणियस्स' लान्तक आदि
१ छे. 'एव जाव सहस्सारो' प्राव वन ४थन प्रमाणे यावत् सनार દેવ સુધીના દેવલેકેનું કથન ગમોના વિભાગ પ્રમાણે છે, તેમ સમજવું. અહિયાં યાવત્પદથી લાન્તક અને મહાશુક આ બે દેવકે ગ્રહણ કરાયા છે. 'नवर ठिइ स वेहच जाणेज्जा' मा शते andz, भडाशु अने सखार દેવેનું કથન બ્રહ્મલેક દેવના કથન પ્રમાણેનું જ છે પરંતુ તે કથન કરતાં આ કથનમાં જે કઈ જુદાપણું હોય તે તે સ્થિતિ અને કાયસંવેધ દ્વારના સબં. ધમાં જ છે, જેમકે-લાન્તક દેવલેકમાં જઘન્ય સ્થિતિ દસ સાગરોપમની છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૪ ચૌદ સાગરોપમની છે, મહાશુક્ર દેવલેકમાં જઘન્ય સ્થિતિ ૧૪ ચૌદ સાગરોપમની છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૭ સત્તર સાગરેપમની છે. સહસ્ત્રાર દેવલોકમાં જઘન્ય સ્થિતિ ૧૭ સત્તર સાગરોપમની છે. भने ४ve स्थिति १८ मढा२ सा५मनी छे 'लंतगादीणं जहन्नकालद्विइयस्स तिरिक्खजोणियस्स' alrds विगैरे पसभा Grपन्न थापा
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