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________________ 'प्रमेयचद्रिका टीका श०२४ उ. २४ सू०१ सौधर्मदेवोत्पत्तिनिरूपणम् ४७१ एतावन्तं कालम् असंख्यात वर्षायुष्क पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतिं देवगति च सेवेत तथा एतावन्तमेव कालं पञ्चेन्द्रियतिर्यगतो देवगतौ च गमनागमने कुर्यादिति तृतीयो - गमः ३ | 'सो चेत्र अप्पणा जहन्नकाल हिइओ जाओ' स एवासंख्यातवर्षायुष्क संज्ञिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक एवं आत्मना - स्वयं जघन्यकालस्थितिका 'समुत्पन्नो भवेत् यदि तदा 'जहन्नेणं पलिओम टुइएस' जघन्येन पल्पोपमस्थिति कसौधर्मदेवलोकेषु समुत्पद्यते, तथा 'उक्को सेन विपलिओषम हिरएस उवज्जेज्जा' उत्कर्षे - णाऽपि पल्पोपम स्थिति इत्पद्येत 'एस चैव वत्तव्यया' एषैव प्रथमगममदर्शितैव वक्तव्यता भणितव्या इहापि सर्व प्रथमगमोक्त वेवेत्यर्थः । 'नवरं ओगाहणा वह जीव इतने कालक असंख्यातवर्षायुष्क पंचेन्द्रिय तिर्यग्गति का ओर देवगति का सेवन करता है और इतने ही कालतक वह उस दोनों गतियों में गमनागमन करता है । ऐसा यह तृतीय गम है | - 'सो चैत्र अपणा जहन्न कालट्ठिहओ जाओ' वही असंख्यातवर्षाos संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जब जघन्य काल की स्थितिको लेकर उत्पन्न होता है और सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होने के योग्य होता है तो वह उस स्थिति में 'जहनेणं पलिओदमट्ठिएस उववज्जेज्जा' जघन्य से वहां के उन देवों में उत्पन्न होता है कि जिनकी स्थिति एक पोप की है और 'उक्कोसेण वि पलिओनमडिएस उववज्जेज्जा' उत्कृष्ट से भी वह उन्हीं देवों में उत्पन्न होता है कि जिनकी स्थिति एक पल्योपम की है । इस प्रकार से आगे की ओर स वक्तव्यता 'एस चैव वक्तव्या' इस कथन के अनुसार प्रथम गम में जैसी कही गई है वैसी यहां पर कहनी चाहिये 'नवरं ओगाहणा जह‘વચ’ આ રીતે તે જીવ એટલા કાળ સુધી પચેન્દ્રિયતિર્યંચ ગતિનું અને દેવ ગતિનુ સેવન કરે છે અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે. એ રીતે આ ત્રીજો ગમ કહ્યો છે. ૩ા 'सा चैव अपना जहन्नकाल ट्ठइओ जाओ' असं ध्यात वर्षांनी आयुष्य વાળા સરી પ’ચેન્દ્રિય તિય ચ ચેાનીવાળા જીવ જ્યારે જઘન્યકાળની સ્થિતિને લઈને ઉત્પન્ન થાય છે. અને સૌધમ દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય હાય छे तो तेथे स्थितिमा 'जहन्नेणं पलि ओवमट्ठिइएस उववज्जेन्जा' धन्यथी त्यांना તે દેવેમાં ઉત્પન્ન થાય છે કે જેઓની સ્થિતિ એક પત્યે પમની હાય છે, એને 'उक्कोसेण वि पलिओवमट्टिइएस उववज्जेज्जा" उत्सृष्टथा पशु ते मेन देवेाभां ઉત્પન્ન થાય છે, કે–જેએની સ્થિતિ એક પલ્યાપમની હૈ,ય છે. આ રીતે भागजनु ं णीनु तभाभ उथन 'एस चेव वतव्वया' या सूत्रांशमां ४ह्या प्रमाणे पडेसा
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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