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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ सु०२ आनतादिदेवेभ्यः मनुष्येषूत्पत्तिः ४१९३ शत्सागरोपमाणि वर्ष पृथक्त्वाभ्यधिकानि, वर्षपृथक्वरूपजघन्यकालस्थितिक मनुप्येपूस्पनत्वेन जघन्यस्थितिकमनुष्पायुः संमेल्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थितिर्वाच्ये तिभावः । 'एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं यावत् कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं सर्वाः र्थसिद्धदेवगति मनुष्यगतिं च सेवेत, तथा एतावन्तं कालं यावत् सार्थसिद्धगती मनुष्यगतौ च गमनागमने कुर्यादिति द्वितीयो गमः २ । 'सो चेव उक्कोसकाळ. दिइएन उववन्नो' स एव सर्वार्थसिद्ध देव उत्कृष्ट कालस्थितिकमनुष्येषु उत्पधेत सदा-'एस चेव वत्तब्धया' एव वक्तव्यता, एपा प्रथमगमप्रदर्शितपकारव व्यवस्था अवगन्तव्येति । केवलं कायसंवेधाशे वैलक्षण्यं तदेव दर्शयति-'नवरं' इत्यादिना। अधिक ३३ सागरोपम का है। यहां जो कायसंवेध के काल में वर्षपृथक्रव अधिकता कही गई है वह वर्षपृथक्त्व रूप जघन्य मनुष्य"भव की आयु के संमेलन से कही गई है। क्योंकि वह वर्ष पृथक्त्व रूप जघन्य आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है। 'एवइयं जोच करेज्जा' इस प्रकार से वह जीव इतने काल पर्यन्त सर्वार्थ सिद्ध देवगति का और मनुष्यगति का सेवन करता है और इतने काल पर्यन्त वह उस गति में गमनागमन करता है। ऐसा यह द्वितीय गम है ॥२॥ ... 'सो चेव उक्कोसकालट्ठिहएप्सु उववन्नों जब वह सर्वार्थसिद्ध देव ही उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तब भी 'एस चेव वत्तव्वया' यही प्रथम गमोक्त वक्तव्यता वहां कह लेनी चाहिये। केवल कायसंवेधांश में विलक्षणता है-यही घात-'नवरं કે–અહિયાં કાયસંવેધ કાળની અપેક્ષાથી જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી વર્ષ ગ્રંથ કવ અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમને છે, અહિયાં કાયસંવેધના કાળમાં જે વર્ષ પૃથકત્વ વધારે કહેલ છે, તે વર્ષ પૃથફર્વ રૂપ જઘન્ય મનુષ્ય ભવની આયુષ્યને મેળવીને કહેલ છે. કેમકે-તે વર્ષ પૃથકૃત્વ રૂપ જઘન્ય આયુષ્યवाणा मनुष्यामा 64-न थये छ. 'एवइयं जाव करेज्जा' मारीत ते ७१ આટલા કાળ સુધી સર્વાર્થ સિદ્ધ દેવગતિનું અને મનુષ્ય ગતિનું સેવન કરે છે, અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે એ રીતે આ, બીજે ગમ કહ્યો છે. પુરા 'मो चेव उक्कोसालदिइएसु उबवन्नो' ब्यारे ते साथ सिद्ध २१ उत्कृष्ट पनी स्थितिवारी मनुष्योभा पन्न थाय छे, त्यारे ५ 'एस चेव वत्तव्वया' मा, पडसा गमभा प्रभाऐन ०४ ४थन मडिया अबुले. व जयसवेधना समयमा विसRY ५ छे. मे पात 'नवरं काला भ० ५२
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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