SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेन्द्रका टीका श०२४ उ. २००५ मनुष्येभ्य पं. तिरश्चामुत्पातः सेणं तिनि पलियोमाई पुञ्चकोडी हुतमदियाई' उत्कर्षेण त्रीणि पल्पोषमानि - पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं कालं सेवेत तथा - तावत्कालपर्यन्तमेन गमनागमने कुर्यादिति सप्तमो नमः ७ । 'सो चेव जहन्नकालट्ठिएस उबवन्नो' स एव - संज्ञिमनुष्य एव जघन्य कालस्थितिकतिर्यग्योनिकेषु समुत्पन्नो भवेत् तदा - 'एस चैव वक्तव्या' एषैव- अनन्तरपूर्व कथितैव सर्वापि, वक्तव्यता वक्तव्या किन्तु पूर्वापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदाह 'नवरे' इत्यादि । 'नवरं काला देसेणं जन्मे पुत्रकोडी अंतोमुहुत्तमम्भहिया' नवरं - केवलं कालादेशेन 7 ३१९ S 'कोसेणं तिनि पलिओदमाह पुण्वकाडीपुहुत्तममहियाई उत्कृष्ट से वह पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पत्येोपम का है 'एवइयं जाव, करेज्जा' इस प्रकार वह जीव इतने काल तक तिर्यग्गति और मनुष्य गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उस गति मेंगमनागमन करता है । ऐसा यह सातवां गम है । 'सो चेव जहन्नका लट्ठिएस उववन्नो' वही संज्ञी मनुष्य जघन्य : काल की स्थितिवाले तिर्यग्योनिकों में जब उत्पन्न होने के योग्य होता. है, तब इस सम्बन्ध में भी 'एस चेव वक्तव्वया' यही अनन्तर पूर्वकथित ही समस्त वक्तव्यता कर लेनी चाहिये । किन्तु पूर्व वक्तव्यता की अपेक्षा जो यहां की वक्तव्यता में अन्तर है उसे 'नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं पुण्त्रकोडी अतो मुहुत्तमम्भहिया' इस सूत्र से प्रकट किया है। इसमें यह कहा है कि काल की अपेक्षा कापसंवेध जघन्य अधि पूर्व अटिने छे भने उक्कोसेणं तिन्नि पलिओ माई पुत्रफोडीपुहुत्तमम्भहियाइ' उत्कृष्टथी ते पूर्वटि पृथइत्व अधिपत्योयमना है, 'एवइयं जाव करेज्जा' मे रीते ते व भेटला आज सुधी तिर्यग्गति भने મનુષ્ય ગતિનુ સેવન કરે છે, અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમન ગમન કરે છે. એ પ્રમાણે આ સાતમે ગમ કહ્યો છે. ૭ . सो चेव जहन्नकाल दिइएस उववन्नो' मे४ संज्ञी मनुष्य धन्य अजनी સ્થિતિવાળા તિય ચયાનિકેામાં જયારે ઉત્પન્ન થવાને ચેગ્ય હોય છે. ત્યારે.તે सधर्मा - पशु 'एस चैव वत्तव्वया' मा पडेला आहेस सघणु अथन ४ डेवु જોઇએ. પર’તુ પહેલા કહેલ કથન કરતાં મહિના કથનમાં જે જુદા પણુ` છે. 'नवर' कालादेखेण जहन्नेणं पुन्त्रकोटी अंतोमुहुत्तमम्भहिया' मा सूत्रपाठथी, तावेस छे. या सूत्रपाठी से समलव्यु छे है-झणनी अपेक्षाथी हायस वेष
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy