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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२४ उ.२० सू०५ मनुष्येभ्य प.तरश्चामुत्पात ३१७ अध्यवसाय स्थानानि अपशस्तानि, स्थितिसदृशोऽनुबन्धः, काय पंवेयो भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे उत्कर्पतोऽष्टौ भवग्रहणानि कालादेशेन तु संज्ञिमनुष्पपश्चेन्द्रिय तिग्योनिकस्थित्यनुमारतो भवतीति । एतदे। दर्शयति-'सेस तं चेत्र' शेषम्परिमाणातिरिक्तं संहननादिकं तदेव-पूर्वोक्तमेवेति षष्ठो गमः ६ । 'सोचेव अप्पणी उक्कोसकालहिइयो' स एव-संज्ञिमनुष्य एव आत्मना-स्वयम् उत्कृष्ट कालस्थितिको जातः बदा-'सेच्चे पढमगमवत्ताया' सैव प्रथमगमवक्तव्यता अस्मिन् प्रथम वेदना इनके होती है। वेद इनमें तीनों ही होते हैं। आयुद्वार में इनकी जघन्य और उत्कृष्ट से आयु एक अन्तर्मुहूर्त की होती है। अध्यवसाय द्वार में इनके अध्यवसाय स्थान अप्रशस्त ही होते हैं। स्थिति के जैसा ही इनके अनुबन्ध होता है। कायसंवेध भवकी अपेक्षा जघन्य से दो भधों को ग्रहण करने रूप और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करने रूप होता है, तथा काल की अपेक्षा वह संज्ञि मनुष्य की और पञ्चे. न्द्रिय तिर्यग्योनिक की स्थिति के अनुसार होता है । यही बात-'सेस तं चेव' इस सूत्रपाठ से प्रकट की है। अर्थात् परिमाण के अतिरिक्त
और सब संहनन आदि का कथन पूर्वोक्त जैसा ही है । इस प्रकार से यह चौथा पांचवों और छठा गम कहा गया है।
'सोचेव अप्पणा उक्कोसकालटिइओ जाओ' अब वही संज्ञी मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति को लेकर उत्पन्न हुआ है तो इस सम्बन्ध में 'सच्चेव पढमगमवत्तव्यया' वही प्रथम गम के जैसी वक्तव्यता कह
છે. આયુ દ્વારમાં તેમને જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતમુહર્તતુ આ હોય છે. અથવસાવ દ્વારમાં તેમને અધ્યવસાય સ્થાન અપ્રશસ્ત જ હોય છે સ્થિતિના કથન પ્રમાણે જ તેમને અનુબંધ હોય છે. કાયસ વેધ ભવની અપેક્ષાથી જઘવથી બે ભને ગ્રહણ કરવ રૂપ અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભને ગ્રહણ કરવા રૂપ કહેલ છે તથા કાળની અપેક્ષાથી તે સ શી મનુષ્યના અને પ ચેન્દ્રિયતિય ચ ચેનિકના પ્રકરણમાં સ્થિતિના કથન પ્રમાણે છે, 'એજ વાત और नव सा सत्राची प्रगट ४२८ छ अर्थात् परिभाबना थन શિવાયનું બીજુ સંહનન વિગેરે સ બ ધી કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેનું જ છે. આ રીતે આ ચેાથો પંચમ અને છઠ્ઠો ગમ કહ્યો છે ૪-૫-૬
'सो चेव अप्पणा उक्कोसकालदिइओ जाओ' मे४ सज्ञी मनुष्य "Bष्ट. अपनी स्थितिथी 64rन थयय तो ते समधमा 'सच्चेव पढमगमवक्त"ध्वया' ५। गमना ४थन प्रमाणुनु ४थन ४ न . ५२'तु मे पडता