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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.२० सू०५ मनुष्येभ्यः प. तिरश्चामुत्पातः ३११ जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूत्तौं 'उक्को सेणं चत्तारि पुषकोडीमो चउहि अंतोमुहुत्तेहि अमहियाओ' उत्कर्षेण चततः पूर्वकोट्यः चतुर्मिरन्तर्मुहूर्तरभ्यधिकाः एतावत्काल पर्यन्तं तिर्यग्योनिकगति मनुष्यगतिं च सेवेत तथा-एतावत्कालपर्यन्तमेव उभयगतौ गमनागमने कुर्यादिति द्वितीयो गमः २ । तृतीयगमं दर्शयन्नाह-'सो चेत्र उक्कोस०' इत्यादि । 'सो चेव उक्कोसकाल टिइएसु उपबन्नो' स एव-संज्ञि मनुष्य एव उत्कृष्टकालस्थितिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु उत्पनो भवेत् यदि तदा -'जहन्नेणं तिपलिओषमद्विइएसु' जघन्येन त्रिपलपोपमस्थिति केषु पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्यौनिकेषु 'उक्कोसेण वि तिपलिओवमटिइएस' उत्कर्पणापि त्रिपल्योपम: स्थितिकेषु पञ्चेन्द्रियतिर्ययोनिकेषु उत्पद्यते, 'सच्चेच वराव्यया' सैव वक्तव्यता काल की अपेक्षा तो जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त का है, परन्तु 'उकोसेणं चत्तारि पुन्चकोडीओ चउहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ' उस्कृष्ट से यह चार अन्तर्मुहर्त्त अधिक चार पूर्वकोटि का है। इस प्रकार वह जीव इतने काल तक तिर्यग्योनिक गति का और मनुष्य गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उस गति में गमनागमन करता है। इस प्रकार से यह द्वितीय गम है। तृतीय गम इस प्रकार 'ले है--'लो चेव उकोस.' वहीं संज्ञी मनुष्य यदि उत्कृष्ट काल की स्थिति बाले पञ्चेन्द्रिय निर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य है तो वह 'जहन्नेणं तिपलि प्रोवहिपएस' जघन्य से तीन पल्यापम की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चों में उत्पन्न होता है और 'उक्कोसेण वि तिपलिओचट्टिाएसु०' उत्कृष्ट से भी वह तीन पल्योपम की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चों में उत्पन्न होता है। अपेक्षाथी , ४३न्यथी में मतभु इतना . ५२तु उक्कोसेण चचारि पुचकोहीओ चउहिं अतोमुहुत्तेहि अमहियाओ' Gथी ते या२ अन्तत અધિક ચાર પૂર્વકેટિને છે આ રીતે તે જીવ આટલા કાળ સુધી તિયચ યોનિકની ગતિનું સેવન કરે છે, અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે. આ રીતે આ બીજો ગમ રહ્યો છે ૨ ३ त्रीले म अपामा मावे छ- 'सो चेव उक्कोस.' से सही મનુષ્ય જે ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા સંની પંચેન્દ્રિયતિય ચ યોનિકમાં 64न्न थवाने योग्य छ, तहत 'जहन्नेणं तिपलिओवमद्विइएसु' धन्यथा त्रए પલ્યોપમની સ્થિતિવાળી સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયતિય ચામાં ઉત્પન્ન થાય છે અને 'उक्कोंसेणं वि तिपलिओंवमद्विइएसु' Gथी ५४ प ५योपभनी स्थिति पापा संशी पथन्द्रियतिय य योनिमा उत्पन्न थाय छ 'सच्चेव.
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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