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भगवती
टीका- 'बण सक्काया णं अंते' वनस्पतिकायिकाः खलु भदन्त । कओ - हिंतो उववज्र्ज्जति' कुत आगत्य उत्पद्यन्ते हे भदन्त । इमे वनस्पतिकायिका जीवाः कस्मात् स्थानादागत्य समुत्पत्तिं लभन्ते इति भावः । भगवानाह - ' एवं पुढवीकाइ' इत्यादि, ' एवं विकाइयसरिसो उद्देसो भाणियन्त्रो एवं पृथिवीकाधिकसहा उद्देशो भणितव्यः, यथा पृथिवीकायिकजीवानामुद्देशः कथित स्वथैवेहापि वनस्पतिकायिको देशको रचनीयः, वनस्पतिकायिकोदेशके जीवानामुत्पादपरिपरिमाणादिकं काय संवेधान्तम् सर्वमपि तथैव विचारणीयम् पृथिवीकायिकगमापेक्षा लक्षण्यं तद्दर्शयितुमाह- 'नवरे' इत्यादि, 'णवरं जाहे वणस्सकाइओ वणसक्काइए उपज' नवरं यदा वनस्पतिकायिको जीवः वनस्पतिकायिकेषु in ! ओहिंतो ववज्जंति' इत्यादि ।
टीकार्थ- गौतम ने प्रभु से इस सुत्रद्वारा ऐसा पूछा है 'वणस्लकाइयाणं भते ! कहिंतो उववज्र्ज्जति' हे भदन्त । वनस्पतिकाधिक जीव किस स्थान से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के समाधान के निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं - ' एवं पुढविक्काश्यसहिसो उसो भाणियच्यो' 'हे गौतम ! जिस प्रकार से पृथिवीकाधिक जीवों का उद्देश कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर भी वनस्पतिकायिक उद्देश कहलेना चाहिये । अतः वनस्पतिकायिक उद्देशक में जीवों का उत्पाद परिमाण आदि का सब कायसंवेध तक का कथन विचार लेना चाहिये । पर पृथिवीकाधिक के गमों की अपेक्षा जो यहां के गमों के कथन में भिन्नता है, उसे प्रकट करने के लिये सूत्रकार 'णचरं जाहे वणस्सह काहओ वणस्सहकाइएस उववज्जद्द' इस सूत्र पाठ को कहते हैं- इसके द्वारा उन्होंने यह प्रकट
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'वत्सइकाइया णं भवे ! कमोहितो उववज्जति' इत्याहि
टीडार्थ-गीतभस्वाभीमे प्रभुने या सूत्रद्वारा मे पूछयु छे है- 'वणस्स इ• काइया णं भंते ! कओहिंतो ! ववज्जंति' हे भगवन् वनस्पतिअधिक लव या સ્થાનમાંથી આવીને ઉન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના સમાધાન નિમિત્તે પ્રભુ गौतभस्वाभीने हे छे–' एवं पुढविक्काइयसरिसो उसो भाणियव्वो' हे गौतम! પૃથ્વિકાયિક જીવાને ઉદ્દેશે જે પ્રમાણે કહેલ છે. એજ રીતે અહિયાં વનસ્પતિ કાયિક ઉદ્દેશ પણ સમજી લેવે જોઈએ. જેથી વનસ્પતિ મયના ઉર્દૂશામાં જીવાના ઉત્પાત, પરિમાણુ વિગેરેનું કાય વૈધ સુધીનું કથન સમજી લેવુ". પરંતુ પૃથ્વીકાયિકના ગમેા કરતાં આ કથનમાં જે જુદા પણું છે, તે णतावतां सूत्रअ२ 'णवरं जाहे वणस्सइकाइओ वणस्स इकाइपसु उववन्जई' मा सूत्र