________________
१३६
भगवतीयसे तत्वर्ण जा सा उत्तरवेउन्धिया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्नइभार्ग' तत्र खल्लु या सा उत्तरक्रिया शरीरावगाहना सा जघन्येनालस्य संख्धेयभागप्रमाणा उत्तरवैक्रिया तु जघन्येनाअगुलस्य संख्येषभागप्रमाणा भवति आमोगजनितत्वात्तस्याः न तथाविधा सूक्ष्मता भवति तादृशी मूक्ष्मता भाधारणीयावगाहनाया भवताति । 'उकोसेणं जोयणसयसहरसं' उत्कर्षेण योजनशतसहसम् उत्तरक्रिय शरीरम् उस्कृष्टतो योजनशतसहस्रात्मक भरतीत्यर्थः ४ । 'तेसिणं भंते । जीवा ' तेषां खल भदन्त ! जीवानाम् 'सरीरगा कि संठिया पन्नता' शरीराणि किं संस्थितानि मज्ञप्तानि कीदृशमस्थानबन्शुि नेपां शरीराणि भवन्तीवि प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पनत्ता' द्विविधानि मज्ञतानि, 'भाधारणिज्जा य उत्तरवेउब्धियाय मनधारणी यानि चोत्तरवैक्रियाणि च, 'तत्य णं नेगं अंगुलस्म संखेन्ना भाग' जो उत्तर वैक्रिय रूप अवगाहना है है वह जघन्य से अंगुल के संसान भाग रूप है और 'उक्कोसेणं जोयणसयसहरलं' और उस्कृष्ट से वह एक लाख योजन की है, उत्तर वैक्रिय अवगाहना जो जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग रूप कही गई है वह आभोग जनित होने से कही गई है, इसमें ऐसी सूक्ष्मता नहीं होती है की जैली सूक्ष्मता भवधारणीय अवगाहना में होती है, पुनः गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'तेग्लिणं भंते ! जीवाणं सरीरमा कि संठिया पन्नत्ता' हे भदन्त ! उन देव रूप जीवों के शरीर किस संस्थानवाले होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा । हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' उनके शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं, 'भवधारणिज्जा य उत्तर वेविया य' एक भवधारणीय और 'तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स सखेजइभाग' उत्तर વૈક્રિય રૂપ જે અવગાહના છે તે જઘન્યથી આંગળના સંખ્યામાં ભાગ ३५ छ भने 'ठक्कोसेणं जोयण पयसहस्स' Gष्टथी ते १ दाम यातनी છે. ઉત્તર ક્રિય અવગાહના જઘન્યથી આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ કહેવામાં આવી છે. તે આગજનિત રહેવાથી કહેવામાં આવી છે. તેમાં એવું સૂમપણું હોતું નથી. કે જે સૂક્ષ્મપણું ભવધારણુંય અવગાહનામાં હોય छ. शथी गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछे छे 'तेसि णं भंते ! जीवाणं सरी. रगा कि संठिया पण्णत्ता' 3 मावन् ! तर ३५ वाना शरी। ध्या संस्थान वाणा डाय छ ? ! प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छ है गोयमा ! हे गौतम ! 'दुविहा पण्णत्ता' माना शरी। में असरना संस्थान हाय छे, 'भवधारणिज्जा य उत्तरवे उब्धिया य' मे सधारणीय मने भी उत्तर