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________________ १०० । भगवतीस्त्रे भिवन्तीति । 'ठिई अणुवंधो य जहन्नेणं अंतोमुहुत्त स्थित्यनुवन्धौ जघन्येन अन्त. सिंहत्तौ 'उक्कोसेणं पुत्रकोडी' उत्कर्षेण पूर्वकोटिः, जघन्योत्कृष्टाभ्यामन्तर्मुहूर्तपूर्वकोटिप्रमाणको स्थित्यनुबन्धौ भवत इति। सेसं तं चेव' शेपं तदेव यत् 'णवर इत्यादिना कथितं तदतिरिक्तं सर्वं तदेव-द्वीन्द्रियप्रकरणोक्तमेव ज्ञातव्यमिति । कायसंवेधस्तु 'भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई' भवादेशेन- भवप्रकारेण भवापेक्षया इत्यर्थः द्वे भवग्रहणे भवद्वयग्रहणात्मक इत्यय: 'उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई उत्कर्षेणाऽष्ट भवग्रहणानि अष्टमवग्रहणात्मक इत्यर्थः । 'कालादेसेणं' 'फालादेशेन-कालापेक्षा कायसंवेधः 'जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता' जघन्येन द्वे अन्तर्मुहू । 'उक्कोसेणं चत्तारि पुनकोडीओ अहासीईए वाससहस्सेहिं अन्म. माहियाओं' उत्कर्षेण च चतस्रः पूर्वकोट्यः अष्टाशीत्या वर्षसहरभ्यधिकाः 'एव. इये जाव करेज्जा' एतावन्तं यावत्कुर्यात् एतावत्पूर्वोक्तकालपर्यन्त पञ्चेन्द्रियतिर्यहोते हैं, इन्द्रियद्वार में इनके श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसना और स्पर्शन ये पांच इन्द्रियां होती हैं। ठिई अणुबंधोय जहन्नेणं अंतोमुष्टुत्तं' यहां 'स्थिति और अनुषन्ध जघन्य से एक अन्तमुहर्त का है, और 'उक्को सेणं पुच्चकोडी' उत्कृष्ट से स्थिति और अनुबन्ध ये दोनों एक पूर्वकोटि 'के हैं । 'सेसं तं चेच' इनले अतिरिक्त और सब कथन द्वीन्द्रिय के प्रक"रण में जैसा कहा गया है वैसा ही है, 'कायसंवेधस्तु' कायसंवेध भव की अपेक्षा जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने रूप और उत्कृष्ट से वह 'आठ भवों को ग्रहण करने रूप है, तथा काल की अपेक्षा वह जघन्य से । अंतमुहर्त का और उत्कृष्ट से 'चत्तारि पुन्चकोडीओ अहासीईए वाससहस्सेहिं अन्भहियामो' ८८ हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि का है, इस લે એ ચાર કષાવાળા હોય છે. ઇન્દ્રિયદ્વારમાં તેઓને શ્રેત્ર (કાન) ચક્ષુ, in EY (18) २सना (OH) म२ स्पशन से पांच द्रिया डाय छे. 'ठिई अणुबंधो य जहन्मेणं अंतोमुहुत्त' मडिया स्थिति भने अनुमा धन्यथा ४ मतभुइतना छ, भने 'उकोण पुवकोडी' उत्कृष्टथी स्थिति भने मतुअधो मे मे पूटिना छे. 'सेसं तं चेव' मा ४थन शिवायनु तमाम ४थन मेन्द्रिय ना ४२मा भाणे घुछे त प्राय छ, 'काय। संवैधो०' यस वध सनी अपेक्षाथी धन्यथा मे भवान ग्रहण ४२वा ३५ અને ઉત્કૃષ્ટથી તે આઠ ભલેને ગ્રહણ કરવા રૂપ તથા કાલની અપેક્ષાથી તે । अन्यथा मे मतभुताना भने थी 'चत्तारि पुवकोडीओ अठासीईए पाससहस्सेहिं अमहियाओ' ८८ सयासी २ वर्ष अधि: यार पूरिन।
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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