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________________ चन्द्रिका टीका श० २० उ०७ सू० १ बन्धस्वरूपनिरूपणम् બ્રેડ प्रज्ञप्तः, 'तं जहा ' तद्यथा - जीवपओगबंध अतर परंपरधे' जीवप्रयोग. बन्धोऽनन्तरबन्धः परम्पराबन्ध इति । 'नेरइयाणं मंते !' रयिकाणां भदन्त ! 'णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स' ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः, कवि बंधे पनते' कति विधो बन्धः प्रज्ञप्तः । उत्तरमाह - ' एवं चेव' एवमेव यथा सामान्यतो ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः त्रिविधो बन्धः प्रदर्शितस्तथैव नारक ज्ञानावरणीयस्यापि कर्मण त्रिविधो धो ज्ञातव्य इति । 'एवं जान वैमाणियाण' एवं यावद्वैमानिकानाम् नारकज्ञानावरणीयस्य कर्मणो यथा विविध वन्धस्तथा वैमानिकान्तजीवसम्बन्धिज्ञानावरणीयस्यापि कर्मण स्त्रिविधो बन्यो भवतीति ज्ञातव्यमिति, एवं जाव अंतराइयस्स' एवं यावदन्तरायकस्य एवमेव अन्तरायकर्मणोऽपि त्रिविधो ज्ञानावरणीय कर्म का जो बंध होता है वह तीन प्रकार का होता है 'तं जहां' जैसे- 'जीवप्पओगयधे, अनंतरधे, परंपरबंधे' जीवप्रयोगथंध, अनन्तरबंध और परम्परायंत्र, 'नेरयाणं भंते ! णाणावर णिज्जस्स कम्मरस०' नैरयिकों के हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध कितने प्रकार का होता है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ' एवं चेव' हे गौतम ! नैरधिकों का ज्ञानावरणीय कर्म का धंध सामान्य ज्ञानावरणीय कर्मबंध के जैसे तीनों प्रकार का होता है । 'एवं जाव वैमाणियाणं' इसी प्रकार से बावत् वैमानिकों तक के जीवों का जो ज्ञानावरणीय कर्म का मंत्र है वह भी तीनों प्रकार का होता है । 'एवं जाव अंतराture' इसी प्रकार से यावत् अन्तराय कर्म का भी बंध तीनों प्रकार का होता है ऐसा जानना चाहिये यहां यावत्पद से दर्शनावरणीय से पंधे पण्णने' हे गौतम ज्ञानावरीय नाले बंध धाय है, તે ત્રણ भारनो देस है, 'त' जहा' ते मा प्रभा हे, 'जीवप्पओगनंघ, अनंतर यंधे परंपरबंधे' लवप्रयोगगंध, अनंतरगंध, गने परंपरा, 'नेरइयान भंते ! नाणावरणिउनरम कम्मर हे भगवन् नैरथिने ज्ञानावरट्रीय मनो અડધ કેટલા પ્રકારના કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે-'થ' ને' કે ગૌતમ નયિકાને જ્ઞાનાવરણીય કર્મબંધની જેમ ત્રણેના અધ धाय हे. 'ए' जाय वैमाणियाणं' शेत्र होते यावत् वैमानिक सुधीना हवेने જે જ્ઞાનાવરણીય કમને બધ થાય છૅ, તે પણ ત્રણે પ્રકારથી થાય છે. तेभ समभ्यु' 'एवं' जब अंतराइयम' से वे भावत् अंतराय मनो
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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