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भगवतीस्त्रे नाशुभानीति भावः । विशेष जिघृक्षुभिः रत्नमभापकरणमेव द्रष्टव्यम्। एतदेवदर्शयति-'अवसेसं तं चेव' अवशेषम्-अध्यवसानातिरिक्त सर्व तदेव-रत्नप्रभापकरणपठितमेव अवगाहनासमुद्घातलेश्यादृष्ट्यादिकं सर्वमपि तदेव रत्नप्रभाप्रकरणपठितमेवेति भा। 'जइ सन्निपंचिंदियतिरिक्खजोगिए. हितो उबदज्जति' यदि संज्ञिपञ्चेन्द्रिपतिर्यग्योनिकेभ्य उत्पधन्ते तदा-'किं संखेज्जवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खनोणिए हिंतो उववजंति' किं संख्येय वर्षायुष्कसंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य आगत्यासुरकुमारा उत्पधन्ते अथवा'असंखेज्जयासाउयसनिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति' असंख्येपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जो कि उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्तरत्ति के योग्य होता है 'ऐसा यह छट्ठा गम है। ये ही मध्य के तीन गम यहाँ गृहीत हुए हैं, इन तीनों गमों में उसके अध्यवसान प्रशस्त ही होते हैं । विशेष जिज्ञासुओं को इसके लिये प्रथम उद्देशक के रत्नप्रभा प्रकरण को देखना चाहिये। 'अवसेसं तं चेव' इस मूत्रपाठ द्वारा यह समझाया गया है कि- अध्यवसान के इस प्रकार के कथन के सिवाय और सब अवगाहना समुद्घात आदि का कथन रत्नप्रभा प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही है।
'जह सन्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो ज्ववज्जति' इस सूत्र पाठ द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि-हे भदन्त ! यदि असुर• कुमार संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में से-आकर के उत्पन्न होते है तो क्या वे-'संखेज्जवासाउय सन्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो संवव०, 'असंखेज्जवासाउय समिपंचिदिय ति०७०' संख्यात वर्ष અસરકમારના ભવમાં ઉત્પન્ન થવાને જે તે પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય અહિયાં ગ્રહણ કરાયા છે. આ ત્રણે ગમેમાં તેઓના અધ્યવસાન પ્રશસ્તજ
છે. વિશેષ જીજ્ઞાસુઓએ પહેલા ઉદેશાના રત્નપ્રભા પ્રકરણમાં જોઈ देव', 'अवसेस तं चेव' या सूत्राथी से समजामा मायु छ हैઅધ્યવસાન બાબતમાં આ કથન શિવાય બાકીનું અવગાહના, સમુદુઘાત, વિગેરે તમામ કથન રત્નપ્રભા પ્રકરણમાં જેવી રીતે તે કહેવામાં આવેલ છે, તેજ પ્રમાણેનું છે.
'नइ सन्निपचिदियरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति' मा सूत्रा द्वारा ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે, કે-હે ભગવદ્ જે અસુર કુમાર સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે તો શું તેઓ'म खेज्जवासाउयसन्निपचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति' असंखेज्जवासाउपसन्नि पंचिदियति. उबवज्जति' च्यात वषनी मायुष्यवाणा सशी पथन्द्रिय