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भगवतीसूत्रे
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-मनस्य जघन्यतएको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कृष्टतः संख्याता वा समुत्पद्यन्ते इत्युत्तरम् । एवमेत्र अन्येऽपि प्रश्नाः कर्त्तव्या स्तेपां यथायथमुत्तराणि च कुर्वता नवाऽपि गमाः रत्नप्रभा गमसदृशा इहाऽपि गमा भणितिव्याः, रत्नप्रभामकरणाद् यद् वैलक्षण्यं तदेवाह - 'णवरं' इत्यादि, नवरम् - केवलं विशेष एव यत् 'जाहे' यंदा स पर्याप्ताऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकजीवः असुरकुमारेपृत्पत्तियोग्यः 'अपणा' आत्मना स्वयम् ' जहन्नकाल हिओ भवई' जघन्यकाल स्थितिको भवति 'ताई' तदा तस्य 'अज्झ बसा णा' अध्यवसानानि - मानसिक परिणामा 'पसत्था'मेशस्तानि-शुमानि भवन्ति किन्तु 'णो अप्पसस्था' नो-नैव अप्रशस्तानि - अशु. मानि - अनुकुमारभवे उत्पित्सोः पर्याप्ताऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवस्य परिणामा
जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं तो इस प्रश्न के उत्तर में ऐसा समझना चाहिये कि वे जीव एक समय में वहां जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार से अन्य और भी प्रश्न करना चाहिये और उनके उत्तर भी करना चहिये, इस प्रकार रत्नप्रभा के गम जैसे यहां पर भी नौगम जानना चाहिये । अब सूत्रकार रत्नप्रभा प्रकरण से यहां के प्रकरण में जो भिन्नता है उसे' नवरं' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा प्रकट करते हैं- इसमें यह समझाया गया है कि जब वह पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव कि जो असुरकुमारों में उत्पत्ति के योग्य है जघन्य काल की स्थितिवाला होता है, तब उसके 'अज्झवसाणा' अध्यवसाय - मानसिक परिणाम-प्रशस्त शुभ ही होते हैं- 'णो अप्पसस्था' अप्रशस्त - अशुभ नहीं होते हैं । अर्थात् असुर
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એવે સમજવા જોઈએ કે-તે જીવે એક સમયમાં ત્યાં જઘન્યથી એક અથવા એ અથવા ત્રણુ ઉત્પન્ન થાય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી સખ્યાત અથવા અસંખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે. એજ પ્રકારે ખીજા પણ પ્રશ્નો અને તેના ઉત્તરી સમજયા જોઇએ. આ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ગમ પ્રમાણે અહિયાં પણ નવ ગમે સમજવા.
હવે સૂત્રકાર રત્નપ્રભા પ્રક૨ણુ કરતાં આ પ્રકરણમાં જે જૂઢાપણુ છે. ते 'नवर" त्याहि सुत्रपाठी बतावे छे. तेमां से सभत्रवामां भाव्युं छे કુ જ્યારે તે પર્યાપ્ત અસ'ની પૉંચેન્દ્રિય તિય ચ ચેાનિવાળા જીવ કે જે ‘અસુરકુમારામાં ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય હોય અને જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા होय छे, त्यारे तेनु' 'अज्ज्ञवसाणा' मध्यवसान -मानसिक परिशुभ प्रशस्त शुभ होय छे, 'णो अप्पसत्या' अशर- अशुभ होतु नथी. अर्थात्