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- भगवती भवतीति प्रश्नस्य भवादेशेन भवद्वरपर्यन्तं गमनागमनं भवतीत्युलरम्-एतत्पर्यन्तं रत्नप्रभापकरणं वक्तव्यमिति । 'कालादेसेणं' कालादेशेन कालापेक्षयेत्यर्थः, जह न्नेणं सागरोवमं अंगोमुहुत्तमम् महियं' जघन्येन सागरोपममन्तर्मुहूर्वाभ्यधिकम् 'उक्कोसेणं वारससागरोवपाई चाहिं पुषकोडीहिं अमहियाई' उत्कर्षण द्वादशसागरोपमाणि चतसृभिः पूर्वकोधिभिरभ्यधिकानि 'एवयं कालं से वेज्जा एवय कालं गइरागई करेन्जा' एतावन्तं काल सेवेत एनावन्तमेव कालं गत्यागती कुर्यात् हे गौतम ! इमे जीवाः शर्करापभायामुस्पित्सवो जघन्यतोऽन्तर्मुहाधिक सागरोपमम् उत्कृष्टश्चतु.पूर्व कोटयधिकद्वादशसागरोपमात्मकपर्यन्तं पर्याप्तदीर्घाहै ? तो इस प्रश्न के उत्तर में यहां ऐसा कहना चाहिये कि भव की अपेक्षा जघन्य दो भव लक होता है, इस प्रकार का रत्नप्रभा सम्बन्धी प्रकरण यहाँ तक का यहां कहना चाहिये, 'कालादेसेण काल की अपेक्षा 'जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुत्तमम्भहियं' तिर्यग्गति का
और नरक गति का सेवन और उसमें गमनागमन जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सागरोपम तक और 'उधोटेणं पारस सागरोवमाई चरहिं पुन्वकोडीहिं अभहियाई उत्कृष्ट से चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम तक होता है, इस प्रकार वह जीव 'एवइयं कालं सेवेज्जा, एवयं कालं गहरागई करेज्जा' इतने काल तक उस गति का । सेवन कर सकता है और इतने ही काल तक वह गमनागमन कर सकता है। तात्पर्य इस कथन का ऐसा हैं कि ये जीव जो शर्कराप्रभा में उत्पन्न होने के योग्य हैं जघन्य से अन्तर्मुहर्त अधिक एक सागरो. पम काल तक और उत्कृष्ट से चार पूर्वकोदि अधिक घारह सागरोपम એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે-ભવની અપેક્ષાએ બે ભવ સુધીનું હોય છે, આ રીતનું રત્નપ્રભા સંબંધી સઘળું પ્રકરણ આ કથન સુધીનું અહિયાં કહી લેવું. 'कालादेसेणं' भनी अपेक्षा 'जहण्गेणं सागरोवमं अंतोमुत्तममहियं तियःચગતિનું અને નરક ગતિનું સેવન અને તેમાં ગમનાગમન જઘન્યથી અંત भुना अधि४ मे. सा.श५म सुपी मने 'उकोसेणं पारससागरोषमाई चाहिं पुचकोडीहि अमहियाई थी यार पूटि मधि मार सागशेषम सुधा खाय है. मारीत ७१ 'एवइय कालं सेवेज्जा एवइय झालं गइरागई कोज्जा' सारदा सुधी ते गतिनु सेवन रे छ, भने सटसा સુધી ગામને ગમન કરતે રહે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે-જે આ છવ શરામભામાં ઉત્પન્ન થવાને ય હેય તે જઘન થી અંતર્મુહર્ત અધિક એક સાગરોપમ કાળ સુધી તે પ્રમાણેની તિર્યંચ ગતિનું અને શાકભા