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________________ ૨૦૦ भगवतीसूत्रे सधाः मूलादिजीवतया समुत्पन्नपूर्णः किमिति मनः, असकृत् अनन्तवार वेत्युत्तरम् । एवमेव मूल देशकवत् कन्दको देशकोऽपि शालिववत् अध्येतव्यः, rane vaaltantsfप एत्रमेव स्वदेशोऽपि एत्रमेत्र शाखोदेशकोऽपि एवमेव मवालोदेशकोsपि एवमेव पत्रपुष्पफलवीनोदेशका अपि कर्तव्या ज्ञातव्याश्चेति शालिद सर्वे उद्देशका यूरुकन्धस्कन्धस्वन्हशाखामालपत्र पुष्पफलबी जान्ता दशोदेशका वक्तव्याः तत्र शालिकवर्गापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शयितुमाह'नवरे' इत्यादि । 'नवरं इमं णागतं ' नवरं केवलम् इदं मानावं भेदः शालिवर्गापेक्षया द्वाविंशतिशत कीग मथमादिवर्गेषु तथाहि - 'मूले कंडे खंबे तयाए साळेय मूले कन्दे स्कन्धे त्वचि शाखायां च ' उद्देगे' एतेषु उप -- गया है । हे भदन्त | समस्त प्राण, समस्तभूत, समस्तजीव, और समस्तसन्त्र क्या मूल आदि के जीव रूप से उत्पन्न हो चुके है ? हां, गौतम ! ये समस्त प्राण आदि मूल आदि में जीवरूप से अनेक बार या अनन्तधार उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार के इस शालिवर्गगत मूलोदेश के जैसा कन्दकोद्देश भी कहना चाहिये इसी प्रकार से रतन्धोद्देशक, त्वगुद्देशक शाखोदेशक, प्रवालोद्देशक और पत्र, पुष्प, फल, एवं बीज सम्बन्धी उद्देश भी जनना चाहिये । शालिवर्ग के जैसा ही ये सब सूल, कन्द, स्कन्ध आदि १० उद्देश स्वतः बनालेना चाहिये परन्तु इस वर्ग में शालिवर्ग की अपेक्षा से जो भिन्नता है उसे सूत्रकार ने 'नवरं' इस पद द्वारा इस प्रकार से स्पष्ट किया है कि इस २२ वें शतक के प्रथमादिवर्गों में पूर्वोक्त शालिवर्ग की अपेक्षा मूल, कन्द, ગૌતમ સ્વામીના પ્રશ્નન્હે ભગવન્ સમસ્ત પ્રાર્થેા, સઘળા ભૂતા સઘળા જીવા અને સઘળા સા મૂળ વિગેરેના જીવ રૂપે શુ પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે-હા ગૌતમ! આ સમસ્ત પ્રાથેા, વિગેરે મૂળ વિગેરે મૂળ વિગેરેમાં જીવ રૂપથી અનેક વાર અથવા અનતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે. આ રીતે આ શાલી વગ માં કહેલ મૂલાદેશક પ્રમાણે કર્દેશક પણ સમજવે. અને એજ રીતે ધેર્દેશક, ત્વષ્ણુहेश, शामोद्देश, प्रवासेद्देिश, अने पत्र, पुण्य, इज ने जीन समधी ઉદ્દેશાઓ પણ સમજવા. શાલીવગ પ્રમાણે જ આ તમામ મૂળ-કંદ કચ્—વિગેરે ૧૦ ઉદ્દેશાઓ સ્વયં મનાવી લેવા. પરંતુ આ વર્ગમાં શાલી વની અપેક્ષાએ—મૂળ, કંદ,
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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