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मैन्द्रिका टीका श०२१ वरं. उ.९ औषधिवनस्पतिशाल्यादिगतजीवनि० २१९. उत्पखोद्देशकस्य मस्कृतायां प्रमेयचन्द्रिकाव्याख्यायां विलोकनीयमिति । 'आहारोंजहा उप्पलुदेंसे' आहारो यथा उत्पलोद्देशके, तेषां शाल्यादिमूलगतजीवानामाहा : रोऽपि उत्पल देशकत्रदेव ज्ञातव्यः 'ते णं भंते । जीवा किमाहारमाहरेति, 'गोयमा !दव्य अनंतपरसाई' ते खलु भदन्त । जीवाः किमाहारम् - कीटशमाहारम् आहरन्ति - कुर्वन्ति, गौतम ! द्रव्यतोऽनन्वप्रदेशकानि आहरन्ति- आहारं कुर्वन्ति इत्यादि सबै प्रज्ञापनाया अष्टात्रिंशतितमपदे प्रथमे आहारोदेश के वनस्पतिकायिकानाHerrears वक्तव्यमिति । 'ठिई जहन्नेणं अंतोसुहुतं उक्को सेणं वासपुहुतं' स्थि
जिज्ञासुओं को उत्पलोदेशक के ऊपर जो मेरे द्वारा प्रमेधचन्द्रिका नाम की व्याख्या लिखी गई है-उससे जानना चाहिये- 'आहारो जहा उप्प. लुद्देसे' उत्पलोद्देशक में आहार के विषय में भी स्पष्टीकरण है-अतः इन शापादिमूलगत जीवों के आहार के विषय में भी वहीं से जान लेना चाहिये जैसे वहां गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है - ते णं भंते! जीवा किमाहारमाहारेति' हे मदन्त ! वे जीव कैसा आहार करते हैं ? उसर में प्रभु ने कहा है- 'गोवमा । दव्यओ अनंतपरसाई दव्वाई' हे गौतम! वे जीव द्रव्य की अपेक्षा अनन्तप्रदेशिक द्रव्यों का आहार करते हैं - इत्यादि सब कथन प्रज्ञापना के अट्ठाईसवें पद में प्रथम आहारोदेशक में वनस्पतिकायिक जीव के आहार के सम्बन्ध में है सो उसी प्रकार से यहां पर भी करना चाहिये, 'ठिई जहन्नेणं अंतो मुटु उक्को से पास हुतं शापादिमूलगत जीवों की स्थिति जघन्य
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જે વિશેષ જાણવાની ઈચ્છા હાય તા જીજ્ઞાસુઓએ ઉપલાદેશક ઉપર મે' જે अभेययन्द्रिा नाभनी टीडी सभी छे तेभांथी समक सेवु. ' आहारो जहा उप्पलुद्दे से उत्पयेद्देिशम्मी आहारता विषयभां पशु स्पष्टी४२ ४रे छे. જેથી આ શાલી વિગેરેના મૂળમાં રહેલા જીવાના આહારના વિષધમાં પણ ત્યાંથી જ સમજી લેવું. ત્યાં ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને એવુ પૂછ્યું છે કે-૨ णं भते ! जीवा किमाहारमाहरेतिं ' हे भगवन् ते कवी देवी माहार ४२ छे ? तेना उत्तरभां प्रभु उछु है - ' गोयमा ! दव्वओ अणतपएसाई दुव्वाइ હું ગૌતમ ! તે જીવે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ અનન્ત પ્રદેશી દ્રવ્યોને આહાર કરે છે, ઇત્યાદિ સઘળુ કથન પ્રજ્ઞાપનાના ૨૮ અઠયાવીસમાં પદમાં પહેલા આહારઉ દેશામાં વનસ્પતિકાયિક જીવના આહારના સંબધમાં કહ્યુ છે, એજ રીતે અહિયાં પણ समल बेवु 'ठिई जइन्द्रेणं अतोमुहुत्त' उक्कोसेणं. बामपुडुतं । शासी विशे