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भगवतीने 'जंघाचारणस्स णं भवे ।' जंघाचारणस्य खलु भदन्त ! 'उड़ें केनइए गइविसए पनत्ते' ऊर्ध्व कियान्-कीदृशो गतिविषयो-गमनक्षेत्र मज्ञप्तम् इति प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'से णं इओ एगेणं उप्पारणं' स जंघाचारण खल्लु इतः एकेन उत्पातेन 'पंड गवणे समोसरण करेइ' पण्डकवने समवसरणं करोति-पण्डकवने स्थितो भवति तत्र गच्छतीत्यर्थः, 'करित्ता' कृत्वा 'तहिं चेहयाई वंदई तत्र-पण्डकत्रने चैत्यानि वन्दते 'वंदित्ता' तत्र चत्यानि वन्दिता 'तओ पडिनियत्तमाणे' ततः-पण्डकवनात् मतिनिवर्तमानः 'वितीएणं उप्पारण' द्वितीयेन उत्पातेन 'नंदनवणे समोसरणं करेई' नन्दनवने समवसरणं करोति, 'करित्ता' कृत्या-नन्दनवने गत्वा तर्हि चेहयाई वंद' तत्र-नन्दनवने चैत्यानि वन्दते 'वंदित्ता इह आगच्छइ' तत्र-नन्दनवने चैत्यानि वन्दित्वा इह ____ अछ गौतमस्वामी प्रभु से 'जंघाचारण की गति का ऊर्ध्व में कितना विषयक्षेत्र है' ऐसा पूछते हैं-'जंघाचारणस्स णं भंते । उर्ल्ड केवाए गइ. विसए पन्नत्ते' इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा! से णं इओ एगेणं उपाएणं पंडकवणे समोसरणं करेई' हे गौतम ! जंघाचारण अपने स्थान से एक उत्पात में पाण्डुकवन में पहुंच जाता है, 'करिता तहिं चेहयाई-वंदर' वहां पहुंचकर वह चैत्यों की-जिनेन्द्र देव के श्रुत भादि झानों की वन्दना करता है, वंदित्ता तो पडिनियत्तमाणे विती एणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरणं करेइ' बन्दना करके फिर वहां से लौटते समय द्वितीय उत्पात से नन्दनवन में पहुंचता है 'करित्ता०' वहां पहुंचकर वह जिनेन्द्र देवों के श्रुनज्ञान आदि रूप चैत्यों की वन्दना करता है 'बंदित्ता०' वन्दना करके फिर वह अपनी जगह पर आ जाता
હવે ગૌતમસ્વામી જંઘ ચારણ મુનિની ગતિ ઉર્વલેકમાં કેટલા વિષય क्षेत्रनी छे, तवा प्रभुने छे छे ४-जंघाधारणस्स णं भंते ! उड्ढे केवइए गइविसए पण्णत्ते' मा प्रश्नना त्तरमा प्रभु ४३ गोयमा ! से ण एसओ एगेण उप्पाएणं पंडकवणे समोसरणं करे इ' है गौतम! यार चाताना स्थानयी : Gत्पातथी पांडपनमा पय नय छे. 'करिता तहि चेइयाई वंदई' त्या पायान ते येत्याने-नेन्द्र देवना श्रुत विगैरे ज्ञानानी ना ४२ छे. 'वंदित्ता तओ पडिनियत्तमाणे बितीएणं उत्पादणं नंदणवणे समोवसरण ર૬ વંદના કરીને તે પછી ત્યાંથી પાછા ફરતી વખતે બીજા ઉત્પાતથી ननवनमा पाये छ. 'करित्ता.' या पहेयीन ते नेन्द्रवाना श्रुत. जान३५ चैत्यानी पहना रे छे. वदित्ता०' पहना शत पछी चाताना