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________________ . .:. भगवतीने 'पढमेण माणुसोत्तर-नगं स नदिस्सरं बिईएणं । एइ तओ तइएणं, कय चेइयचंदणो इह यं ॥१॥ छाया-प्रथमेन मानुषोचरनगं स नन्दीश्वरं द्वितीयेन । एति ततस्तृतीयेन, कृतचैत्यवन्दन इह च ॥१॥ इति अत्र चैत्यपदं न देवविबोधकम् मन्दिरस्थापनस्य तत्र प्रतिष्ठापितमूर्तिपूजा यांश्च सावद्यत्वेन सकलशास्त्रनिराकरणात् अतश्चैत्यपदं ज्ञानार्थकम् यथा भगवता समुपदिष्टं तत् तथैवोपलभ्य तदीयज्ञानं प्रशंसतीति। 'विज्जाचारणस्स णं गोयमा! विद्याचारणस्य खलु गौतम ! 'तिरिय एवइए गइसिए पनत्ते' तिर्यक् एतावानएतादृशो गतिविषयो गमनक्रियागोचर क्षेत्रं प्रज्ञप्ता-कथित इति । 'विज्जाचारणस्स णं भंते ! उडूं केवइए गतिविसर पन्नत्ते' विद्याचारगस्य खलु भदन्त ! ऊवं. कियान्-कीदृशो गतिविषयो-गमनक्रियाविषयभूतं क्षेत्रं समुदाहृतमिविप्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, गोयमा हे गौतम ! से णं इओ.एगेणं. उप्पारणं' मेण माणुसोत्तर-नगं स' इत्यादि । यहां जो चैस्यपद आया है वह देवपिम्प का प्रतियोधक नहीं है क्योंकि मन्दिर की स्थापना का और उसमें प्रतिष्ठापितमूर्ति की पूजा का कार्य सावध होने से सकलशास्त्रों ने निराकृत किया है। इसलिये. यह चैत्यपद ज्ञानार्थक है जैसा भगपान ने कहा है वह वैसा ही है, इस प्रकार से श्रद्धासंपन्न बनकर उनके ज्ञानों की प्रशंसा करना यहीं ज्ञान की वन्दना है इस प्रकार से-'विज्जाचारणस्स णं गोयमा! तिरियं एवइए गाविसए पत्ते' हे गौतम विद्याचारण की तिर्यग्गति का विषय कहा गया है विद्याचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कैसा कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! से णं इओ एगेणं उपाएणं.' हे गौतम! वह 'पढमेण माणुसोत्तर' त्या मडिया २ थैत्य यह माव्यु छ त विभिन्मनु પ્રતિબંધક નથી. કેમકે મંદીરની સ્થાપના અને તેમાં પ્રતિષ્ઠિત કરેલ મૂર્તિની પૂજા વિધિ સાવધ રહેવાથી તમામ શાસ્ત્રોએ વજીત કરેલ છે. તેથી આ ચૈત્ય પદ જ્ઞાનાર્થક છે, ભગવાને જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે એજ પ્રમાણે છે. આ પ્રમાણેની શ્રદ્ધાથી યુક્ત બનીને તેમના જ્ઞાનેની પ્રશંસા ४२वी मे ज्ञाननी पहना छे. मारीत 'विजाचारणस्स ण गोयमा! तिरिय एवइए गइविसए पण्णत्ते गौतम विधायानी तियातिना विषय मा પ્રમાણે કહેલ છે. વિદ્યાચારણની ઉપરની ગતિને વિષય કે કaો છે? આ HRI Gत्तरमा प्रभु ४ -'गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पापणं०'
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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