SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०५ सु०३ नारकादीनामायुप्कादिप्रतिसंवेदनानि. ४९ भवतीति परमार्थः। एवं मणुस्सेसु वि' एवं मनुष्येष्वपि यथा नारकविषये एकस्य प्रतिसम्वेदनं द्वितीयस्य पुरतः करणं कथितम् एवमेव मनुष्यविषयेऽपि ज्ञातव्यम् 'नवर मणुस्साउयं से पुरओ कडे चिट्ठई' नवरं मनुष्यायुष्क तस्य पुरतः कृतं तिष्ठति 'असुरकुमारे गं भंते !' असुरकुमारः खलु भदन्त ! 'अणंतर उबहित्ता' अनन्तरमुखत्य-व्युत्या 'जे अविए' यो मव्या, 'पुढत्रीकाइएसु उववज्जितए' पृथिवीकायिकेपु उपपत्तुम् 'पुच्छा' पृच्छा 7 खलु भदन्त ! कतरमायुष्क पतिसंवेदयति-अनुभवतीत्येवं रूपेण प्रश्ना, भगवानाह-'असुरकुमार' इत्यादि । 'असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेई' असुरकुमारायुकं प्रतिसंवेदयति 'पुढवीकाइयाउए अनुभव होता है और जहां भरकर जाता है उल परायुक का अभिमुखीकरण होता है। 'एवं मणुस्लेसु वि' जैसा नारक के यह एक आयु का प्रतिसंवेदन और परायष्क का पुरतःकरण कहा है। उसी प्रकार से मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिये । 'लवरं मणुस्साउयं से पुरओ कडे चिट्ठ' विशेषता वेषल यहां ऐसी है कि यह मनुष्य आयु को उदयाभिमुख करता है। अब गौमत प्रभु से ऐसा पूछते हैं 'असुरकुमारे णं भंते !' हे भदन्त ! असुरकुमारदेव 'अणंतरं उवाहित्ता जे भविए पुढवी. काहएल उववज्जित्तए' जो सरकर तुरत ही पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है वह फिस आयु का अनुभव करता है? इल प्रश्नके उत्तर में प्रभु उनले कहते है। अखरकुमार' हे गौतम! असुरकुमारदेव जो मरकर तुरत ही पृथिवीकायिकों में उत्पन्न ના મરણના સમયમાં જે ભવમાં તે વર્તમાન હોય તે ભાવ સંબંધી આયુષ્યને અનુભવ કરે છે. અને મરીને જ્યાં જાય છે, તે પરાયુષ્યનું અભિभुमी ४२ थाय छे. "एवं मणुस्सेसु वि०" नारीय वानरे प्रमाणे मे આયુષ્યનું પ્રતિસલેખન અને બીજા આયુષ્યનું અભિમુખી કરણ કહ્યું છે, તેજ शत मनुष्यना विषयमा ५] सम४. "नवरं मणुस्सायं से पुरओ कडे चिइ" ४थनमा विशेषता व मेटली के 8-मा मनुष्य मायने ઉદયાભિમુખ કરે છે. 6 गौतम स्वामी प्रभुने मे पूछे छ है-"असुरकुमारे ७ भंते !" गवन असुमार व "अणंतरं उच्चट्टित्ता" जे भविए पुढवीकाइएसु स्ववजित्तए" २ भशन पछी तरत. पृथ्वीयामा अत्पन्न याने योग्य બને છે, તે કેવા આયુષ્યને અનુભવ કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ भने ४ छ 8-."असुरकुमार०" . गौतम ! असु२४भार हेर ने भर પછી તરત જ પૃથ્વીકાયિકોમાં ઉત્પન્ન થવાને ચગ્ય હોય છે, તે અસુરકુમા म०७
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy