SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०५ सू०१ भास्वरजीवविशेषदेवानां निरूपणम् ३५ सरीरे असुरकुमारे देवे' तत्रोमयोर सुरकुमारयोर्मध्ये खलु यः स वैक्रियशरीरोऽनुरकुमारो देवः 'से णं पासादीप' स खलु प्रासादीयः 'जाव पडिरूवे' यावत् मति रूपः अत्र यावत् पदेन 'दरिसणिज्जे अभिरूवे' इत्यनयोः संग्रहः । तथा च यो हि अमुरकुमारदेवो वैक्रियशरीरवान् स खलु पासादीयोऽत्यन्तमनोरयत्वादिगुणयुक्तो भवति क्रियविभूपितशरीरमाहात्म्यादिति । 'तत्थ णं जे से अवेउन्धियसरीरे असुरकुमारे देवे' तत्र खल्लु यः सोऽवैक्रियशरीरोऽसुरकुमारो देवः 'से णं नो पासादीए जाव नो पडिरूवे' स खलु नो प्रामादीयो यावत् नो प्रतिरूपः, यस्यामरकुमारदेवस्य वैक्रियशरीरं नास्ति स न प्रासादीयो नापि मनोहरत्वादिगुणयुक्तः। शरीरवाला कहा जाता है और तय यह अलंकारादि से विभूषितशरीरवाला होता है, तब वह वैक्रियशरीवाला कहलाता है। 'तत्थ णं जे ले बेउवियसरीरे असुरकुमारे देवे' इन दोनों असुरकुमारों के बीच में जो क्रियशरीरबाला असुरकुमार देव हैं । 'से गं पासाइए' वह प्रासादीय होता है। 'जाव पडिस्वे' यावत् प्रतिरूप होता है । यहां यावत्पद ले 'दरिणिज्जे अभिल्बे' इन दो पदों का संग्रह हुआ है । तथा च जो असुगकुमार देव वैफ्रियशरीरवाला होता है । वह प्रासादीय होता है अत्यन्त मनोरमत्वादि गुगों से युक्त होता है क्योंकि वह पैक्रिय से विभूपितशरीर के महात्म्यवाला होता है । 'तत्थ णं जे ले अवेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे' तथा जो असुरकुमारदेव अवैक्रियशरीरवाला होता है । 'से नो पालादीए जाव नो पडिरूवे' वह न प्राप्तादीय होता है और न यावत् प्रतिरूप होता है। અને તે જયારે અલંકાર વિગેરેથી સુશોભિત શરીરવાળે થઈ જાય છે, ત્યારે त वैठिय शशवाणी काय छे "तत्थ णं जे से वेउब्वियसरीरे असुरकुमारे देवे" म मन्ने असुमारामां 4यि शरीवाले असुमार हे छ, "सेणं पायाइए" प्रासाहीय मानने भान नाराय छ "जाय पडिरूवे" यावत् प्रति३५ छ।य छे. "दरिसणिज्जे अस्वेि " शनीय हाय छे. मलि३५ -સંદરરૂપવાળ હોય છે અર્થાત્ જે અસુકુમાર દેવ વિક્રિય શરીરવાળા હોય છે, તે પ્રાસાદીય હેય છે. અત્યંત મનપસાદિ ગુણોવાળો હોય છે કેમ કે यथा सुशासित शरीरन मायाणे खाय . "तत्य गंजे से अवे. उव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे" तथा २ सुमार व मवेश्यि शरीरवाणे। डाय छ. "से ण णो प.सादी र जाव णो पडिहवे" प्रासादीय-प्रसन्नता. વાળા હોતા નથી દર્શનીય હેતા નથી. ચાવ—તિરૂપ હોતા નથી.
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy