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________________ टी श०२० ५०२ सु०१ आकाशस्त्ररूपनिरूपणम् ५०१ वगाह्य-लोकं व्याप्य खलु तिष्ठति, 'एवं जाव पोग्गलत्थिकाए' एवम् - धर्मास्तिकायवदेव यावत् लास्तिकायोऽपि लोकस्पृष्टः लोकमवगाह्य तिष्ठति यावत्पदेन अधर्मास्तिकायलोकाकाशजीवास्तिकायानां संग्रहः । ' अहेलोए णं भंते' अधोलोकः खड्ड भदन्त ! 'धम्मत्थिकायस्त' धर्नास्तिकायस्य 'केवइयं ओगाढे' कियन्तं भागमवगाढः - अवगाह्य स्थितः 'गोयमा ! सातिरेगं अद्धं ओगाढे' गौतम | सातिरेकमर्द्धम् - अद्धत्किञ्चिदधिकमवगाढः, 'एवं एएणं अभिलावेणं जहा वितीयसए' एवम् एतेनाभिलापेन यथा द्वितीयशतके अनेनैव क्रमेण यथा द्वितीयशतके दशमोद्देशके कथितम् तथेहापि वक्तव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याहइसका है 'लोयफुडे लोयं चेव ओगाहित्ताणं चिट्ठद्द' लोक को छूता हुआ यह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होकर रहा हुआ है 'एवं जाव पुग्गलस्थिकाएं' यहां यास्पद से अस्तिकाय लोकाकाश और जीवास्तिकाय' इसका ग्रहण हुआ है तात्पर्य यह है कि धर्मास्तिकाय के जैसे ही यावत् अधर्मास्तिकाय लोकाकाश और जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय ये सप लोक को छूते हैं और लोक को व्याप्त कर उसमें ठहरे हुए हैं । अब गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है- 'अहेलोएणं भंते ! धम्मस्थिकायस्स केवइयं ओगाढे' हे भदन्त अधोलोक धर्मास्तिकाय के कितने भाग को व्याप्त करके ठहरा हुआ है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! सानिरे अर्द्ध ओगाढे' हे गौतम! अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को व्यास करके ठहरा हुआ है 'एवं एएवं अभिलावेणं जहा वितीयसए०' इसी क्रम से जैसा द्वितीयशतक के १० वें उद्देशक में कहा सोम्भां व्याप्त थर्धने रहे छे. 'एवं जाव पुग्गलत्थिकाए' अहि यावत्पढथी અધર્માસ્તિકાય લેાકાકાશ અને જીવાસ્તિકાય એ ગ્રહણ કરાયા छे. કહેવાતુ. તાપય એ છે કે-ધર્માસ્તિકાયની જેમ જ યાવતુ અધર્માસ્તિકાય લાકાકાશ, જીવાસ્તિકાય અને પુદ્ગલાસ્તિકાય એ ખવા જ લેકને સ્પર્શ કરે છે. અને લેાકમાં વ્યાપ્ત થઈને તેમાં રહે છે. ફ્રીથી गौतम स्वामी अलुने छे छे है- 'अहे णं भते ! धम्मत्थिकायस्स केवइय ओगाढे' हे भगवन् अधोलो धर्मास्तिडायना डेंटला लागने व्याप्त अने रह्यो छे? तेना उत्तरभां अलु - 'गोयमा ! खातिरेंग अद्धं ओगाढे' ह ગૌતમ! અધલાક ધર્માસ્તિકાયના અર્ધાં ભાગથી કઈક વધારે ભાગને વ્યાપ્ત કરીને રહેલ છે. 'एवं एएणं अभिलावेणं जहा बितीयख९०' मे उभी જેમ બીજા શતકના દસમાં ઉદ્દેશામાં કહેવામાં આવ્યુ છે તેજ પ્રમાણે અહિયાં
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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