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________________ चन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सु०२ अ० पर्यायान्तरेणपुद्गलादिपुनि० २१७ टीका - परमाणुपोग्गले णं भंते !' परमाणुपुद्गलः खलु भदन्त ! 'वायुकारणं फुडे' वायुकायेन स्पृष्टो भवति ? 'वाउकाए वा परमाणुपोग्गलेणं फुड़े' वायुकायो वा परमाणु गलेन स्पृष्टः ? हे भदन्त ! वायुना परमाणुर्व्याप्तिः परमाना वा वायुर्व्याप्त इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! ' परमाणुपले वाउकारणं फुडे' परमाणुपुद्गलः वायुकायेन स्पृष्टः व्याप्तो मध्ये क्षिप्त इत्यर्थः । 'नो बाउकाए परमाणुपोग्गलेणं फुडे' नो वायुकायः परमाणुपुद्गलेन स्पृष्ट, व्याप्तः मध्ये क्षिप्तः, वायोर्महत्त्वात् परमाणोश्च निष्मदेशत्वेनातिसूक्ष्मतया व्यापकत्वाभावादिति । 'दुपए लिए णं भंते ! खंधे वाउकाणं एवं चे' 'द्विप्रदेशिकः खल भदन्त । स्कन्धः वायुकायेन एवमेव स्पृष्टो. टीकार्थ - इस सूत्रद्वारा सूत्रकार ने ऐसा पूछा है कि- परमाणुपोग्गलेणं भंते ० !' हे भदन्त ! जो परमाणुपुद्गल है, वह क्या वायुकाय के द्वारा स्पृष्ट होता है या वायुकाय परमाणुपुद्गल द्वारा स्पृष्ट होता है ? परमाणु के द्वारा वायु व्याप्त है या वायु के द्वारा परमाणु व्याप्त है ऐसा इस प्रश्न का आशय है उत्तर में प्रभु ने कहा- 'गोयमा' इत्यादि - हे गौतम! परमाणुपुद्गल वायुकाय द्वारा स्पृष्ट होता है - व्याप्त होता है मध्य में क्षिप्त होता है पर वायुकाय परमाणुपुद्गल से व्याप्त नहीं होता है मध्य में क्षिप्त नहीं होता है, क्योंकि वायुकाय महान् होता है और परमाणु दयादि प्रदेशों से रहित होने के कारण अति सूक्ष्म होता है । इस कारण वह उसे व्याप्त नहीं कर सकता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं । 'दुप्पएसिएण अंते । खंधे० ' हे भदन्त ! जो स्कन्ध द्विप्रदेशिक टीार्थ-मा सुत्रथी सूत्रारे मे पूछयु छे - " परमाणुपोगले णं મંન્ને !'' હે ભગવત્ જે પરમાણુ પુદ્ગલ છે, તે વાયુકાયને સ્પશ કરી શકે છે? અથવા વાયુકાય તેને સ્પર્શ કરી શકે છે? પરમાણુથી વાયુ વ્યાપ્ત છે ? કે વાયુથી પરમાણુ વ્યાપ્ત છે? એ રીતનેા આ પ્રશ્નના ભાવ છે. આ પ્રશ્નના उत्तरभां अलु ! छे ! - "गोयमा !" त्याहि हे गौतम! परमाणु युगस વાયુથી સ્પષ્ટ વ્યાપ્ત થાય છે. પણ વાયુકાય પરમાણુ પુદ્ગલથી વ્યાપ્ત થતા નથી કેમ કે વાયુકાય મહાત્ હેાય છે. અને પરમાણુ એ પ્રદેશ વિગેરેથી રહિત હાવાથી અત્યંત સૂક્ષ્મ હાય છે. તેથી તે તેને વ્યાપ્ત કરી શકતા નથી हवे गौतम स्वाभी असुने येवु चूछे छे है--' दुष्पएसिए णं भंते ! खंघे०” हे लगवन् मे प्रदेशवाजा ? २४ध होय छे, ते वायुभयथी व्याप्त भ० २८
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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