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भगवती सूत्रे
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समीपे वा स्थितो भगवन्तं त्रिविधया पर्युपासनया कायिव्यादिरूपया पर्युपास्ते, इत्यर्थः 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः मद्रकस्य विनयेन पर्युपासनानन्त खलु श्रमणो भगवान् महावीर : 'मदुयस्स समणोवासगस्स तीसे जाव परिसा पडिगया । मदुकाय श्रमणोपासकाय तस्यै च यावत् परिषत् प्रतिगता, भगवता धर्मकथा कथिता सद्रुकमुद्दिश्व तथा परिषदं चोद्दिश्य, तदनन्तरं भगवतो वन्दनादिकं कृत्वा परिषत् प्रतिगतेति, अत्र यावत्पदेन 'महतिमहालयाए' इत्यारभ्य 'परिसा' इत्यन्तः सर्वोऽपि पाठः संग्राह्यः 'तएणं मदुए समणोवा सए' ततः खलु मर्तुकः श्रमणोपासकः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जाब निसम्म हट्टतुडे परिणाई पुच्छड़' यावत् निशम्य उनके समक्ष अपने उचित स्थान पर बैठ गया और वहीं से वह त्रिविध पर्युपासना से कायिक, वाचिक और मानसिक पर्युपासना से उनकी पर्युपासना करने लगा । 'तए णं सरणे भगवं महावीरे' इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर ने 'मदुग्रस्त समणोवासगस्स तीसे य जाव परिसा पडिगया' श्रमणोपासक मनुक के लिये और उस परिषदा के के लिये धर्मकथा कही, इस कथिन धर्मकथा को सुनकर और भगवान् को वन्दना आदि कर परिषदा विसर्जित हो गई यहां यावत्पद् से 'महतिमहालपाए' से लेकर 'परिसा' यहाँ तक का पाठ सब गृहीत हुआ है । 'तए णं मद्दुए समणोवालए' इसके अनन्तर श्रमणोपासक मठुक प्रभु से धर्मकथा सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट होते हुए उनसे प्रश्नों को पूछा यही पान 'समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव निस्सम्म हट्ठे पसिनाई पुच्छ' इस मूत्रपाठ द्वारा व्यक्त की
जाव पज्जुवासइ" वहना नमस्कार पुरीने ते पछी भगवाननी सभीयमां याताना ઉચિત સ્થાને બેસી ગર્ચા અને ત્યાંથી જ ટાયિક, વાચિક, અને માનસિક पर्युपासनाथी तेखानी पर्युपासना वा साज्ये "तए णं समणे भगवं महावीरे" ते पछी श्रमायु भगवान् महावीर स्वाभीये " मदुस्स समणोशसगस्स तीसे य जाव परिसा पडिगया" श्रमास हुने तथा त्यां श्रेष्ठी थयेस परिषहाने ધર્મકથા કહી. તે ધમ થાને સાંભળીને અને ભગવાને વંદના નમસ્કાર કરીને परिषधा पोतपोताने स्थणे पछी गई. मडियां यावत् पथी "महइमह लयाए” थी सर्धने "परिसा " सहीं सुधीना पाठ थोछे “तए णं मदुए समणोवास” ते पछी श्रमास भगुडे प्रभुनी पासेथी धर्म अथा सांसणीने અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને હુતુષ્ટ થઈને પ્રભુને પ્રશ્નને! પૂછ્યા. આજ वृत “समणस्स भगवो महावीरस्स जाव निसम्म हहृतुठे पसिनाई पुच्छ ”