________________
'भगवतीसूत्रे । भापते, उत्तरासंगादिना मुखमनाच्छाद्य भापां भाषते तदा सा भाषा सावधा , भवति, यधुसरासंगादिना मुखमाच्छाध भाषां भाषते तदा सा भाषा निरवधा भिवतीति भावः । पुनरपि शक्रमेवाधिकृत्याह-'सक्केणमित्यादि, सक्केणं भंते'
शक्रः खलु भदन्त 'देविंद देवराया' देवेन्द्रो देवराजः किं भवसिद्धए' किं भवसिद्धिका 'अयवसिद्धिए, सम्मादिहिए' अभवसिद्धिकः सम्यग् दृष्टिकर, । हे भदन्त शक्रो भवसिद्धिकोऽभवसिद्धिकः सम्यग्दृष्टिमिथ्याष्टिवैति प्रश्नः। • भगवानाह-एवं जहा मोउद्देसए सर्णकुमारो जाव नो अचरिमे एवं यथा-मोको: देशके मोकानगरीवक्तव्यतामविषादके तृतीयशतके प्रथमोद्देशे सनत्कुमारः यावत् नो अचरमः तृतीयशतकीयप्रथमोद्देशके यथा सनत्कुमारविषये कथिततेणष्टेणं जाय भासइ' इसलिये मैंने हे गौतम ! ऐसा कहा है कि जब वह शक उत्तरासङ्ग आदि से सुख को आच्छादित कर बोलता है तब वह निवरय भाषा बोलता है और जब विना आच्छादित-खुले मुंह बोलता
है, तब वह सावधभाषा बोलता है। . . .. अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'सक्केणं भन्ते देविदे देवरायाकि .. भासिद्धिए अभवसिद्धिए, सम्मदिटिए' हे भदन्त ! देवेन्द्र देवराज । शक क्या भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है या सम्यग्दृष्टिक है? ." इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'एवं जहा मोउद्देसए सणकुमारो जाच नो , अचरिमे' मोका नगरी की वक्तव्यता के प्रतिपादक तृतीयशतक में प्रथम २ उद्देशक में सनत्कुमार के विषय में जैसा कहा गया है वैसा ही यहां पर
वज भासं भासइ" त्यारे मन निरवध भाषा मा छ. “से तेणटेणं जाव भासइ" गीतम! ते रथी मे मे घुछ है स्यारेश ઉત્તરસંગ (ઉપરણું)થી મોઢાને ઢાંકીને બોલે છે. ત્યારે તે નિરવલ ભાષા બેલે છે. અને જ્યારે મુખ ઢાંકયા વગર ખુલે મોએ બેલે છે ત્યારે તે साप माषा मा छ,
व गौतम स्वामी प्रसुन से पूछ छ है-"सक्के णं भंते ! देविदे देवराया कि भवसिद्धिए अभवसिद्धिए सम्मदिदिए" B सन् ! हेवेन्द्र देव. રાજ શકે શું ભવસિદ્ધિત છે.? કે અભાવસિદ્ધિત છે, અથવા સમ્યગ દષ્ટિ छ १ तना उत्तर प्रभु ४ छे , “एवं जहा मोउद्देसए सणंकुमारो जाव नो अचरिमे" मे नगीना व ननुं प्रतिपाहन ४२नार श्रीन शतना पडसा ઉદ્દેશામાં સનકુમારના વિષયમાં એવું કહ્યું છે તેવું જ કથન અહિયાં પણ