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प्रेमयन्द्रिका टीका श० १६ उ० २ सू० ३ जीवानां जराशोकादिनिरूपणम् ६ मुखवत्रिकेत्यर्थः, तम् अणिज्जूहिताण' अनियृह्य-अदत्वा, निपूर्वको यहि धातुलौकिका आच्छादनार्थक बन्धनार्थको वा-धातूनामनेकार्थत्वात् अतएव 'द्वायर्यापीडे काथरसे निहो नागदतके इति कोशे (श्लोक-२३६) उक्तम् । यद्वा निर्पूर्वक ऊहधातुः उक्तार्थका 'पृषोदरादित्वाद् धातोर्यगागमा, अतएव "नियूहः शेखरे निर्यासे नागदन्तके" इति विश्वकोशः, सदोरक खन्नत्रिकाधारणस्यापि उपलक्षणमिदम् तत्र इदमेव भगवतीमूत्र मूलं प्रमाणम् । अनेन भगवद्वाक्येन मुखो. परि मुखवत्रिकाया वन्धनं सिद्धम् , ये तु 'मुखवत्रिकया मुखमनाच्छाघापि भाषणे है उत्तरासंग आदि से आच्छादित किये विना अथवा-'सूक्ष्मकाय' शब्द का अर्थ वनखण्ड है-जिसे मुखवस्त्रिका कहा जाता है। 'अणिज्जूहिता में 'निर्' पूर्वक 'यूहि' धातु है, यह 'यूहि' लौकिक हैं और इसका अर्थ
आच्छादन करना है, अथवा बांधना है। क्योंकि धातु के अनेक अर्थ होते हैं। इसीलिये 'द्वायर्यापीडे काथरले नियूं हो नागदन्तके' अर्थात् नियूह शब्द का अर्थ-दरवाजा 'अपीड' बांधना काथरस-काढा, नागदन्त-खूटी इतने अर्थ है ऐसा अमरकोश में २३६ श्लोक में कहा है, अथवा-निर पूर्वक 'ऊह' धातु भी है और इसका अर्थ भी वही है। इसका पाठ 'पृषोदरादिगण' में है, अतः पृषोदरादि होने से 'ऊह' धातु को 'यक' आगम हुआ है, अतएव 'नियूहः शेखरे द्वारे निर्यासे नाग-दन्तके' ऐसा विश्वकोश में लिखा है । यह पद सदोरक मुखवस्त्रिका को धारण करने का भी उपलक्षक है। वहां यही भगवती का मूलसूत्र प्रमाण है। भगवान के इस वाक्य से मुख के ऊपर मुखबस्त्रिका बांधना અર્થ વસ્ત્રને કકડે એ પ્રમાણે છે જેને મુખવસ્ત્રિકા (મુહપત્તિ) કહેવામાં भाव छ. “ अणिज्जूहित्ता" कायम ०२ नाष्टिय निरपूर्व "यूहि" धात छ. सा“ यहि" धातु छ भने तना म ढ प्रभारी અગર બાંધવું એ પ્રમાણે થાય છે કેમકે ધાતુના અનેક અર્થો થાય છે तथा " द्वार्यापीडे काथरसे नि!हो णागदन्तक" से प्रभारी मभरोषना 336i aswi छ.
અથવા નિરપૂર્વક ઉહ ધાતુ પણ છે અને તેને અર્થ પણ ઉપર પ્રમાણે થાય છે તેને પાઠ પૃદરાદિ ગણમાં છે પૃષોદરાદિ હોવાથી ઉહ ધાતુને થડ मागम थय। छ. "नियंहः शेखरे द्वारे, निर्यासे नागदन्तके" से प्रभारी विश्व. કેષમાં લખ્યું છે. આ પદ સદર મુખવકા દેરા સાથેની મુહપત્તિને ધારણ કરવામાં પણ પ્રમાણે રૂપ છે. તે વિષયમાં ભગવતી સૂત્રને આ મૂળ પાઠ જ પ્રમાણું રૂપ છે. આ પ્રમાણે ભગવાનના વાકયથી મેઢા ઉપર મુહ