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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०३ सू०३ छमस्थविपये प्रश्नोत्तरम् रेइ वा अन्यत्वं वा नानात्वं या जानाति वा, पश्पति वा आहरति वा, अन्यत्वम्-अनगारद्वयसंबन्धिनो ये पुद्गला स्तेषां भेदम् , नानात्वम्-वर्णादिकृत वा भेदमिति 'एवं जहा इंदियउद्देनए पढमे' एवं यथा इन्द्रियोदेश के प्रथमे, एवं यथा-प्रज्ञापनासूत्रस्थपञ्चदशपदस्य प्रथमे इन्द्रियोद्देशके करितं तथा भणितव्यम् विशेषस्वयम् प्रज्ञापनागतपकरणे 'गोयमा' इति संबोधनम् , अत्र च 'मार्गदियपुत्ते' इति संबोधनपदं भणितव्यम् । 'जाव वेमाणिया' यावद् वैमानिकाः, 'आणत्तं पुद्गलों के 'किंचि' क्या 'अण्णत्तं वा जाणत्तं वा अन्यत्व को या नानात्व को 'जाणइ वा पालइ वा' जानता है या देखता है ? या उन्हे ग्रहण करता है ? जो अनगारों के निर्जरा पुद्गल हैं उन पुलों में जो भेद है वह नानात्व है अथवा उनमें जो वर्णादिकृत भेद है वह नानात्व है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं। 'एवं जहा इंदिय उद्देसए०' जैसा प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रिय उद्देशक में कहा गया है। उसी प्रकार यहां पर कहलेना चाहिये । यदि कोई विशेषता है वह केवल संयोधन को ही लेकर है। बाकी और कथन में कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् प्रज्ञापनागत प्रकरण में 'गोषमा' ऐसा सम्बोधन पद है और यहां 'मागंदिपुत्ते' ऐसा संबोधन पद है । 'जाव वेमाणिया इसका तात्पर्य प्रज्ञापना प्रकरण के अनुसार ऐसा है-नारक से लेकर वैमानिकदेवपर्यन्त छदमस्थजीव क्या निर्जरापुद्गलों के पोग्लाण' मिस पुदवार 'किचि अण्णत्त' वा णाणात वा' शुभन्याय २ अथवा नानापन 'जाणइ पासई' तो छ १४४ छ ? अथवा ते अड કરે છે? બે અનગારના જે નિર્જરા પુદ્ગલ છે. તે પુદ્ગલમાં જે ભેદ છે તે “નાનાત્વ છે. અથવા તેમાં જે વર્ણ ગંધ રસપશ વગેરે ભેદ છે, તે नाना छ मा प्रश्न उत्तम प्रभु छ -'एवं जहा इंदियउद्देसए०' प्रशायना सूत्रना ५४२मा पहना पडसाहन्द्रिय देशामा वामा આવ્યું છે તે જ રીતે અહિં પણ તે સઘળું કથન સમજવું. તેમાં જે વિશેષતા છે. તે સંબોધન પુરતી જ છે. બાકીના બીજા કથનમાં કંઈ જ વિશેષતા नधी. अर्थात् प्रज्ञापनाना प्रभा 'गोयमा' में प्रभारी समाधन छ. भने माया 'मादियपुत्ते' मे प्रमाणतुं समाधन छे. अर्थात् प्रज्ञापनाना .. રણમાં ગૌતમસ્વામીને ઉદ્દેશીને કથન કરાયેલ છે. અને અહિંયા માકંદીપુત્રને
ईशान थन ४२पामा मान्य छे. 'जाव वेमाणिया' प्रज्ञापन। सूत्रनु ४२६४ થાવત્ નારકથી આરંભીને વૈમાનિક પર્યન્ત ગ્રહણ કરવું. કહેવાનું તાત્પર્ય