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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०२ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे आहारकद्वारम् ५५३ क्रमेण नारकादारभ्य यावद् वैमानिकजीवानाम् अनाहारक भावेन अप्रथमत्वं ज्ञेय. मिति । 'नेरइए णं भंते ! नैरयिकः खलु भदन्त ! अनाहारकभावेन प्रथमः अपथमो वेति मनः, भगवानाह-'नेरइए' इत्यादि । एवं 'नेरइए जाव वेमाणिए नो पहमे अपढमे नैरयिको यावद् वैमानिक नो प्रथमः किन्तु अप्रथमः अत्र यावत्पदेन तियमनुष्यभवनपतिवानव्यन्तरज्रोतिष्कवैमानिकपर्यन्तश्चतुर्विशतिदण्डके सर्व संसारिजीवानां संग्रहो भवति तथा च नै रयिकादारभ्य वैमानिकान्तः सर्वोऽपि जीव: अनाहारकभावेन प्रथमो न भवति किन्तु अमथम एव भवतीति भावः । 'सिद्ध पढमे नो अपढमे सिद्धः प्रथमः नो अपथमः अनाहारकमावेन सिद्धः प्रथम एव भवति अप्रथमस्तु न यत इतः पूर्व सिद्धत्व पर्याय सहितानाहारक दस्याजीव इस अवस्था को इस अनादिसंसार में अनन्तवार प्राप्त करता आ रहा है। अत: यह अवस्था उसकी अनन्तवार से अनुभूत होने के कारण अप्रथम है। इससे वह संसारी अप्रथम है। इसी प्रकार दण्डकके क्रम से लेकर वैमानिक जीवों में अनाहारक भाव की अपेक्षा अप्र. थमता जाननी चाहिये। . अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि-'नेरइएणं भंते' हे भदन्त ! नरयिक जीव अनाहारक भाव की अपेक्षा से क्या प्रथम है या अप्रथम है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'नेरइए जाव वेमाणिए नो पढमे अपढमे हे गौतम नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक के जीव इस अनाहारक भाव की अपेक्षा से सब ही अप्रथम है, यहां यावत् शब्द से तिर्यञ्च, मनुष्य, भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष् इन सब संसारी. जीवों को ग्रहण हुआ है। 'सिद्धे पढमे, नो अपढमे सिद्ध अनाहारक भाव की अपेक्षा प्रथम है-अप्रथम नहीं हैं। क्योकि सिद्धपर्याय विशिष्ट પ્રમાણે દંડકના કમથી વિમાનિક જીમાં અનાહારકભાવની અપેક્ષાથી અપ્રથમતા સમજવી.
वे गौतम स्वामी नाहीन समयमा प्रभुने पूछे छे ?-"नेरइए णं भंते " . सगन् नै२वि व मनाला सापाथी प्रथम छ ? है मप्रथम छ ? तना उत्तरमा प्रभु छ8-"नेहइए जाव वेमाणिए नो पढमे अपढमे" उ गीतमा नैयिाथी मारलीन, यात वैमानि सुधीना । આ અનાહારકભાવપણુથી બધાજ અપ્રથમ છે પ્રથમ નથી અહિયાં યાત शण्४थी तिय या मनुष्य, सनयति. पाय-२, न्यातिषि. या मधा ससारी & डर थया छ. "सिद्धे पढमे नो अपढमे" मनाहा ભાવપણાથી સિદ્ધ પ્રથમ છે અપ્રથમ હોતા નથી. કેમ કે સિદ્ધ પર્યાયથી યુક્ત જે અનાહારક છે, તે તેઓએ પહેલી જ વખત પ્રાપ્ત કરી છે. પહેલાથી તે અવસ્થા તેઓને પ્રાપ્ત થયેલ નહોતી. આ કથન એક વચનની
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