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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० १ सू० ४ अधिकरणाधिकरणीनिरूपणम् २५ रथशकटपुत्रकलत्रादिरूपमधिकरणं यधपि नियमतः सहचारी न भवति तथापि स्वस्वामिभावस्य तदविरतिरूपस्य सहवर्तित्वात् जीवः साधिकरणीति कथ्यते, अत एव वक्ष्यते-'अविरई पडुच्च' ति, अत एन-संयवानां शरीरेन्द्रियादि सद्भावेऽपि विरतिमत्त्वात् साधिकरणित्वं न भवतीति । निरधिकरणी-निर्गतमधिकरणं यरमात् स निरधिकरणी, अधिकरणदूरवर्तीत्यर्थः । गौतमः पृच्छति-- 'से केण्टेणं पुच्छा' तत्केनार्थेन पृच्छा, केन कारणेन भदन्त एवमुच्यते जीव साधिकरणी नियमतो न तु निरधिकरणी इति । भगवानाह-' गोषमा अविरई पडच' हे गौतम अविरति प्रतीत्य, अविरत्यपेक्षया एवं कथयामि यत् जीवः इससे उसमें साधिकरणता होती है । यात्रा रथ शकट, पुत्र काल आदि रूप अधिकरण यद्यपि नियमतः इसके सहचारी नहीं हैं, फिर भी यह उनमें स्वस्वामिसंवन्धरूप अविरति भाव से सहवर्ती बना रहता हैइसलिये उसमें साधिकरणता आती है इसलिये 'अविरई पडच्च' ऐसा कहा गया है साधिकणता जीव में अविरत भाव की अपेक्षा से आती है, जो विरतिसंपन्न है ऐसे संयत्त जीवों के शरीर इन्द्रिय आदि का सद्भाव रहता है फिर भी उनमें विरतिमत्ता के सद्भाव से साधिकरणता नहीं होती है निरधिकरणता होती है, अर्थात् वे अधिकरण दूरवर्ती होती है-उनमें वे स्वस्वामिभाव से सम्बन्धित नहीं होते हैं । अब गौतम प्रभु से पूछते हैं कि 'ले केणटेणं भते ! पुच्छा!' जीव नियम से साधिकरणी होता है निरधिरणी नहीं होता है इसका क्या कारण है? इसका उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा अविर पडुच्च' हे गौतम ! સાધિકરણતા હોય છે બાહા રથ, ગાડુ, પુત્ર, કલત્ર, (સ્ત્રી) વિગેરે રૂપ અધિકરણ નિશ્ચિત રૂપથી તેના સહચારી હોતા નથી તે પણ તે તેમાં વસ્વામી સંબંધ રૂપ અવિરતિ ભાવથી સાર્થક હોવાને કારણે સહવતિ બનેલ રહે છે तथी तमा सोधिरता RITE मावी लय छे. तथी सूत्रहार-" अविरह पडुच्च" से प्रभारी यु छ. साधि४२ता भवि२तिमानी अपेक्षा આવે છે જે વિરતિથી યુક્ત છે એવા સયત જીવોને શરીર, ઈન્દ્રિય આદિને સદુન્નાવ રહે છે. તે પણ તેમાં વિરતિમત્તાના સદુભાવથી સાધિકરણતા હતી નથી નિરાધિકરણતા હોય છે અર્થાત્ તે અધિકરણથી દૂર રહેલ હોય છે. તેમાં તે સ્વામી ભાવથી સંબંધવાળે છે તે નથી.
હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૂછે છે કે જીવ નિયમથી સાધિકરણી હોય छे. निरधि४२८ी नयी हात ? तेना उत्तम प्रभु ४९ छे हैं “गोयमा!