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भगवतीसूत्र विरतेरभावात् कारणाभावे कार्याभावस्य स्वभाविकत्वात् अविरतियुक्तस्यैव जीवस्य अधिकरण्यधिकरणत्वसद्भावादिति । 'से तेणटेणं जाव अहिगरणं वि' तत् तेनार्थेन यावत् हे गौतम ! एवमुच्यते जीव अधिकरणी अपि अधिकरणमपि तथा चाविरत्यात्मककारणविशेषसद्भागात जीवोऽधिकरणी अपि अधिकरणं शरीरादिरूपमपि भवतीति भावः। गौतमः पृच्छति-'नेरइए ण मंते किं अहिगरणी अहिगरणं वि' नैरयिकः खलु भदन्त ! कि अधिकरणी अधिकरणम् ? भगवानाह-गोयमा! अहिगरणी हि अहिगरणं वि' हे गौतम ! अधिकरणी अपि अधिकरणमपि “एवं जडेव है वह शरीरादिकों के सद्भाव में भी न.अधिकरणी होता है, और ने अधिकरण होता है। क्योंकि इनरूप होने का कारण जो अविरति भाव है उसका उस में अभाव है। कारण के अभाव में कार्य का अभाव होना यह स्वभाविक है। अतः अब जब ऐसी बात है कि जो जीप अवि ‘रति युक्त है उसी में अधिकरणी रूपता और अधिकरणरूपता का सद्भाव होता है-तो 'से तेणटेणं जाव अहिगरणं वि' इसीलिये है गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जीव अधिकरणी भी होता है और
अधिकरणरूप भी होता है। अर्थात् अविरस्यात्मक कारण विशेष के 'सद्भाव से जीव अधिकरणी होता हुआ भी शरीरादिरूप अधिकरण भी हो जाता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'नेरएणं भंते ! कि अहिगरणी अहिगरण' हे भदन्त ! नैरयिक अधिकरणी हैं "या अधिकरणरूप हैं ? उत्तर में प्रभु ने कहा-'गोयमा ! अहि. गरणी वि अहिगरण वि' हे गौतम ! नारक अधिकरणी भी है और સદુભાવમાં અધિકરણ પણ હેતે નથી અને અધિકરણ પણ હેતે નથી કારણ કે જીવમાં તે બંને પ્રકારે હેવાનું કારણ જે - અવિરતીભાવ છે. તેને તેમાં અભાવ છે એથી જે જીવ અવિરતિ યુક્ત છે તેમાં અધિકરણી રૂપતા भने अधि:२५ ३५ताना सदमा २९ छे. “से वेणदेणं जाव अहिगरणं वि" એથી હે ગૌતમ!મેં એવું કહ્યું છે કે જીવ અધિકરણી એને અધિકરણ એ બને રૂપવાળો હોય છે. અર્થાત્ અવિરત્યાત્મક કારણ વિશેષના સદુર્ભ વથી જીવ અધિકરણી બનીને પણ શરીરાદી રૂ૫ અધિકરણ પણ બની જાય छे. ३ गौतम स्वामी प्रभुने पूछे छे , " नेरइएणं भंते ! किं अहिंगरणी अहीगरणं" भगवन् ! ना ७ अधि:२यी छ है अधि४२६५ ३५
१तना उत्तरमा महावीर स्वामी ४ छ । “गोयमा ! अहिगरणी वि अहिगरग वि" गीतमा ना२४ ७१ अधिरjी ५-छ, मन मधिर