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भगवती सूत्रे
निव्वत्तेमाणे कइकिरिए गोयमा । सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच किरिए । जीवा णं भंते ! वेउन्त्रियसरीरं निव्त्रत्तेमाणा कइ किरिया गोयमा ! ति किरिया विचउकिरिया वि पंचकिरिया वि, एवं जाव कग्मगसरीरं' एवं यावत् कार्मणशरीरम् एवम् औदारिकदैक्रियशरीरवत् यावत् कार्मणशरीरपर्यतम् जीवत्वाश्रयणेन ज्यादिक्रियावच जीवस्य जीवानां च वक्तव्यम् यावत् शब्देन आहारकते जसोर्ग्रहणम् । 'एव' सोइंदियं जाव फासिंदियं' एवं श्रोत्रेन्द्रियं यावत् स्पर्शनेन्द्रियम् यथा शरीर निर्वर्त्तने ज्यादिक्रियावत्व' जीवस्य जीवानां वा कथितं तथा श्रोत्रेन्द्रियनिर्वर्त्तमानेऽपि व्यादि क्रियावत्व ज्ञेयम् कियत्पर्यन्तं ज्ञेयं तत्राह - 'जाव फार्सेदियं यावत् चक्षुणरसनस्पर्शनेन्द्रिय गोमा । सिय तियकारिए, सिय चड किरिए, सिय पंच करिए। जीवाणं भंते ! वेडसरीरं निव्वत्तेमाणा कह किरिया ? गोवमा ! तिकिरिया वि, चकिरिया वि, पंचकिरिया वि, एवं जाव कम्मगसरीरं' इस प्रकार औदारिक, वैक्रिपशरीर के जैसा यावत् कार्मण शरीर पर्यन्त एक जीव और बहुत जीवों को आश्रय करके व्यादि क्रियावत्त्व एक जीव में एवं अनेक जीवों में कहलेना चाहिये। यहां यावत् शब्द से आहारक और तैजस शरीर का ग्रहण हुआ है । 'एवं सोंइदिय जाब फासिंदिये जिस प्रकार से औदारिक शरीरादि के निर्वर्तन में एक जीव और अनेक जीवों
यदि क्रियावत्ता कही गई है। उसी प्रकार से श्रोत्रेन्द्रिय के निर्वर्तन में भी एकजीव में तथा अनेक जीवों में त्र्यादि क्रियावन्ता जान लेनी चाहिये। यह व्यादि क्रियावत्ता चक्षु, घ्राण, और स्पर्शन इन इन्द्रियों की निर्वर्तना में भी इसी प्रकार से एक जीव में और अनेक निव्त्रत्तेमाणे कइकिरिए गोयमा सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए सिय पंच किरिए जीवा णं भंते! वेडन्नियसरीरं निव्त्रत्तेमाणा कइ किरिया, गोयमा विकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि "एवं जाव कम्मगसरीरं " ये रीते ઔદારિક અને વૈક્રિય શરીરની માફક યાવત્ કાણુ પર્યન્તના એક જીવ અને અહુ જીવાને ઉદ્દેશીને ત્રણ વિગેરે ક્રિયા સમજી લેવી, અહિયાં ચાવત્ શબ્દથી આહારક અને તેંજસ શરીરનુ· ગ્રહણ થવુ... छे. " एव सोइंदियं जाव फासिंदिय" मोहारिए शरीरना सभधभां श्रे જીવ અને અનેક જીવેામાં ત્રણ વિગેરે ક્રિયાપણું સમજી લેવુ.... આ ત્રણ विगेरे प्रियायाशु यक्षु, धारा (नासिड) अने स्पर्शन या इन्द्रियाना સમધમાં પણ એજ પ્રમાણે એક જીવેશમાં અને અનેક જીવામાં ત્રણ ચાર