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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१६ उ०५ सू०४ गङ्गदत्तदेवस्य पूर्वभवविषयकप्र० १७७ महत्य परिषदे धर्म परिकथयति । धर्मकथां श्रुत्वा परिषत् पतिगता, अत्र यावत्पदेन धर्मकथादि श्ररणादिकं सर्व वक्तव्यं भवति तदनन्तरं परिषत् प्रतिगता । 'तएणं' ततः खलु तदनन्तरं किल से गंगदत्ते गाहाई' स गङ्गदत्तो गाथापतिः 'मुणिमुन्वयस्स अरहओ' मुनिसुव्रतस्य अर्हतः 'अतियं' अन्तिके-समीपे 'धम्म सोच्चा' धर्म श्रुत्वा धर्मदेशनां श्रवणगोचरीकृत्य 'निसम्मे' निशम्य हदि अवधार्य 'हतुह०' हृष्टतुष्ट: चित्तानन्दितः, हर्षवश विसर्पहृदयः 'उठाए उठेइ उत्थया उत्तिष्ठति 'उट्टाए उद्वित्ता' उत्थया उत्थाय 'मुणिमुक्यं अरहं वंदइ नमसइ' मुनिसुव्रतम् , अहन्तं वन्दते नमस्यति 'वदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी' वन्दित्वा नमस्थित्वा एग्मवादीत् 'सदहामि णं भंते !' श्रदद्धामि खलु भदन्त ! 'निग्गं पावयणं' नैग्रन्थं प्रवचनम् 'जाव से जहेयं तुम्मे बदह' यावत् तत् यथेदं यूयं वदथ, 'तीसे य महति जाव परिक्षा पडिगया उस विशाल परिषद में धर्म का उपदेश दिया धर्मका उपदेश सुनकर परिषदा स्वस्वस्थान पर पीछे गई वहीं यावत्पद यह प्रकट करता है कि धर्मकथादि सुनने के सम्बन्ध का वक्तव्य सब यहां कहलेना चाहिये 'तए णं' इसके बाद से गंगदत्त गाहावई' वह गंगदत्त गाथापति 'मुणिसुत्रयस्स अरहओ अंतियं धम्म सोच्चा 'मुनिसुव्रत अर्हन के निकट श्रुतचारित्ररूप धर्मका व्याख्यान सुनकर 'निसम्म' और उसे हृहय में धारण कर हतुह' हष्टतुष्ट एवं आनन्दितचित्त हुआ और हर्षवशविसर्पद् हृदय होकर 'उद्याए उठेइ' उत्थानशक्ति ले वह उठा 'उहाए उद्वित्ता मुनिसुव्वयं अरहं, वंदइ, नर्मलाई उठकर उसने मुनिसुव्रत अहन्त को वन्दना की, नमस्कार किया 'वंदित्ता नमलित्ता एवं बयासी' बन्दना नमस्कार करके फिर उसने ऐला कहा-'सहामिण भंते ! निमाथं पांचवणं हे भदन्त। આ ધર્મદેશના સાંભળીને પરિષદ પોતપોતાના સ્થાને પાછી ગઈ અહિંયા यावत् ५४थी सघनी य थानु परत०५ सम " तए " ते पछी "से गंगदत्ते गाहावई" त मायापति " मुणिसुव्वयस्स अरहो अंतियं धम्म सोचा" सुनतमुनिनी पांसे श्रुत यारित्र ३५ मना 6पहेश सांसजीन "निसम्म" मन त यमा धारण ४२ "तु" प्रसन्न ચિત્તવાળે થયે અને હર્ષના અતિરેકતથી પ્રફુલ્લિત ચિત્તવાળા થઈને " उठाए उट्टेड" यान शतिथीयो . " उढाए उद्वित्ता मुनिसुव्वयं अरह', वंदइ, नमसइ" ही तेथे सुमत भुनिन नाश नम२४२ ४ " वंदित्ता, नमसित्ता एवं क्यासी" ना नभ७२ ४रीन पछी तरी या प्रमाणे ४. "सहहामिण भंते ! निग्गंथं पावयण" मग !
भ० २३